एकनाथ रानडे

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चित्र:Eknath Ranade image.jpg
एकनाथ रानाडे

एकनाथ रानडे (१९ नवम्बर १९१४ - २२ अगस्त १९८२) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक समर्पित कार्यकर्ता थे जिन्होने सन् १९२६ से ही संघ के विभिन्न दायित्वों का निर्वाह किया। कन्याकुमारी स्थित विवेकानन्द स्मारक शिला के निर्माण के लिये आन्दोलन करने एवं सफलतापूर्वक इस स्मारक का निर्माण करने के कारण प्रसिद्ध हैं।

जीवन परिचय

एकनाथ रानडे का जन्म १९ नवम्बर १९१४ को अमरावती जिले के टिटिला गांव में हुआ था। गांव छोटा था और वहां शैक्षणिक सुविधाएं नहीं थीं। इस कारण एकनाथ अपने बड़े भाई के घर नागपुर पढ़ाई करने के उद्देश्य से आए। उनके घर के पास संघ की शाखा लगाती थी। आस-पास के लड़के सहज जिज्ञासावश शाखा पर होने वाले क्रियाकलापों को देखने के लिए वहां एकत्रित होते थे। उनमें एकनाथ भी थे। शीघ्र ही संघ की बाल शाखाएं प्रारम्भ हुई जिनमें एकनाथ का प्रवेश हुआ। डॉ॰ साहब का ध्यान उनकी ओर एक होनहार स्वयंसेवक के नाते गया। यथा समय एकनाथ ने माध्यमिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और संघ कार्य के लिए प्रचारक बनने की इच्छा व्यक्त की। परन्तु डॉ॰ साहब ने उन्हें पहले अपनी पढ़ाई पूरी करने की सलाह दी। महाविद्यालय में वे एक मेहनती, निडर तथा गुणसंपन्न विद्यार्थी के रूप में उभरे थे। पढ़ाई के साथ-साथ वह संघ कार्य भी करते रहे। १९३६ में शिक्षा पूरी करने के बाद वे प्रचारक के रूप में मध्य प्रदेश में गए। महाकौशल तथा छत्तीसगढ़ में उन्होंने संघ कार्य का विस्तार किया। मध्य प्रदेश प्रवास के समय उन्होंने डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय (सागर विश्वविद्यालय) से तत्त्वज्ञान विषय में स्नातकोत्तर भी किया।

विवेकान्द स्मारक के निर्माता

एकनाथ रानडे का नाम सुनते ही कन्याकुमारी के तीन सागरों के संगम पर स्थित "स्वामी विवेकानन्द शिला स्मारक' की याद हो आती है और इस भव्य स्मारक के शिल्पकार का चित्र आंखों के सामने साकार हो जाता है। सरसंघचालक गुरुजी ने शिला स्मारक का काम श्री एकनाथ रानडे के कंधों पर डाला था। अपने नेता द्वारा सौंपे हुए काम को अपने प्राणों की बाजी लगाकर कैसे पूरा किया जाए, इसका आदर्श श्री एकनाथ ने प्रस्थापित किया। संघ के अनुशासन और विचाराधारा में तैयार होने वाला तथा सभी कसौटियों पर खरा उतरने वाला व्यक्तित्व यानी, श्री एकनाथ रानडे।

सत्याग्रह के नायक

वे जब मध्य प्रदेश में संघ कार्य का दायित्व यशस्वी रूप से सम्भाल रहे थे उन्हीं दिनों महात्मा गांधी की हत्या हुई। राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित होकर पं॰ नेहरू की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने संघ पर पाबंदी लगाई। संघ ने इसके विरोध में जो सत्याग्रह किया उसका नेतृत्व भी श्री एकनाथ ने भूमिगत रहकर किया। संघ पर प्रतिबंध समाप्त होने के बाद संघ कार्य की बिगड़ी हुई अवस्था को फिर से ठीक मार्ग पर लाने के काम में श्री एकनाथ ने एक निष्ठावान कार्यकर्ता की तरह पू. गुरुजी की सहायता की। तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले निर्वासित हिन्दू बंधुओं का पुनर्वसन करने के लिए संघ ने कलकत्ता में "वास्तुहरा सहायता समिति' की स्थापना की। इस प्रकल्प का सब काम श्री एकनाथ रानडे ने ही किया। १९५० से १९५२ के कालखण्ड में श्री एकनाथ को दिल्ली तथा पंजाब प्रान्तों का प्रचारक नियुक्त किया गया। उन्होंने प्रत्येक शाखा पर जाकर वहां के बिखरे हुए काम को संगठित किया। उसी समय उन पर संघ के सरकार्यवाह की जिम्मेदारी सौंपी गई। उन्होंने पूरे देश का दौरा कर संघ कार्य का विस्तार किया।

विवेकानन्द स्मारक केन्द्र

उनके संघ के सरकार्यवाह के नाते काम करते समय विवेकानन्द जन्मशताब्दी महोत्सव का अवसर आया। पू. गुरुजी रामकृष्ण मिशन के दीक्षाप्राप्त संन्यासी थे। उन्होंने संघ की ओर से स्वामी विवेकानन्द शताब्दी का कार्यक्रम आयोजित किया। उन्हीं दिनों केरल में प्रसिद्ध समाजसेवी व नायर समुदाय के नेता श्री मन्नथ पद्मनाभन के नेतृत्व में कन्याकुमारी स्थित "विवेकानन्द रॉक मेमोरियल समिति' की स्थापना की गई। इन चट्टानों पर स्वामी विवेकानन्द ने तीन दिनों तक ध्यानस्थ होकर साधना की थी और वहीं पर उनका सत्य से साक्षात्कार हुआ था। श् श्री पद्मनाभन ने इस स्मारक के काम के लिए संघ के सहयोग की मांग की। पू. गुरुजी ने इस के लिए एकनाथ रानडे को नियुक्त किया। चयन कितना सही था। इस स्मारक का ईसाइयों ने विरोध किया था। सरकार भी विरोध में थी परन्तु श्री रानडे ने इन विरोधों का सफलतापूवर्क सामना किया। उन्होंने स्मारक निर्मिति का अनुमोदन करने वाले ३८६ लोकसभा सदस्यों का समर्थन प्राप्त किया। स्मारक निर्माण के लिए प्रचण्ड धनराशि एकत्र की और स्वामी विवेकानन्द राष्ट्रीय स्मारक का स्वप्न साकार हुआ। इन सब बातों से एकनाथ जी के कर्तृव्य का बोध तो होता ही है, पर उससे भी अधिक महत्त्वपूर्णश् बात यह है कि एकनाथ जी का इस स्मारक के प्रतिश् दृष्टिकोण कितना विशाल था। आज विवेकानन्द केन्द्र एक शैक्षणिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलन बन गया है। २२ अगस्त १९८२ को गणेश चतुर्थी के दिन उनका निधन होने तक एकनाथ जी का जीवन विवेकानन्दमय हो गया था। अपना सर्वस्व लगाकर काम करने का क्या अर्थ होता है, यह जानने के लिए एकनाथ जी का जीवन आदर्श है।

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