परिसमापन

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कंपनियों का परिसमापन (Liquidation or winding up) एक ऐसी कार्यवाही है जिससे कंपनी का वैधानिक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इसमें कंपनी की संपत्तियों को बेचकर प्राप्त धन से ऋणों का भुगतान किया जाता है तथा शेष धन का अंशधारियों के बीच वितरण कर दिया जाता है।

कंपनी का समापन तीन प्रकार का हो सकता है :

  • (क) न्यायालय द्वारा अथवा अनिवार्य परिसमापन,
  • (ख) ऐच्छिक परिसमापन (voluntary winding up),
  • (ग) न्यायालय के निर्देशन के अंतर्गत परिसमापन (winding up under the supervision of the court)

न्यायालय द्वारा परिसमापन

न्यायालय द्वारा समापन के लिए प्रार्थनापत्र देने का अधिकार स्वयं कंपनी, उसके ऋणदाताओं, धनदाताओं (contributories) तथा कुछ स्थितियों में रजिस्ट्रार अथवा केंद्रीय सरकार द्वारा अधिकृत व्यक्ति को होता है।

न्यायालय द्वारा समापन के मुख्य कारण हैं : कंपनी के सदस्यों की संख्या में कंपनी अधिनियम द्वारा निर्धारित निम्नतम संख्या में कमी तथा ऋणों के भुगतान करने में कंपनी की असमर्थता। न्यायालय को समापन के विस्तृत अधिकार प्राप्त हैं और वह जब भी कंपनी का समापन उचित एवं न्यायपूर्ण समझे इसके लिए आदेश दे सकता है। मुख्यत: प्रबंध में गतिरोध उत्पन्न होना, कंपनी का आधार समाप्त होना तथा कंपनी के बहुमत अंशधारियों के अल्पमत अंशधारियों के प्रति दमन व कपट करने की स्थिति में कंपनी का समापन उचित एवं न्यायपूर्ण माना गया है।

न्यायालय द्वारा कंपनी का परिसमापन, समापन के Winding up लिए याचिका के प्रस्तुत करने के समय से ही समझा जाता है। याचिका चाहे किसी ने भी दी हो, समापन का आदेश सभी ऋणदाताओं तथा धनदाताओं के प्रति इस प्रकार लागू होता है जैसे यह उन सबकी संयुक्त याचिका हो।

कंपनी के संबंध में समापन आदेश होने पर सरकारी समापक इसका मापक बन जाता है। वह इसकी संपत्तियाँ बेचकर ऋणदाताओं का ठीक क्रम में भुगतान करके शेष को अंशधारियों के अधिकारानुसार वितरण करता है।

ऐच्छिक परिसमापन

कंपनी का ऐच्छिक समापन निम्नलिखित परिस्थितियों में हो सकता है-

  • (क) अंतर्नियमों में निर्धारित अवधि समाप्त होने पर अथवा उनमें निर्दिष्ट वह घटना घटित होने पर जिसके घटित होने से कंपनी का समापन करना निश्चित किया गया हो। ऐसी दशा में कंपनी के सदस्य साधारण सभा में एक साधारण प्रस्ताव पास करके उसके ऐच्छिक समापन का निर्णय कर सकते हैं।
  • (ख) अन्य किसी परिस्थिति में कंपनी की साधारण सभा में एक विशेष प्रस्ताव पास करके ऐच्छिक समापन का निर्णय किया जा सकता है।

ऐच्छिक परिसमापन दो प्रकार का होता है - सदस्यों का अथवा ऋणदाताओं का।

सदस्यों का ऐच्छिक परिसमापन

जब कंपनी अपने ऋणों का भुगतान करने में समर्थ हो और उसके सदस्य समापन का निश्चय करें तो यह सदस्यों का ऐच्छिक समापन कहलाता है। ऐसी परिस्थिति में कंपनी के संचालकों को यह घोषणा करनी पड़ती है कि कंपनी में अपने ऋणों का भुगतान करने की समर्थता है। ऐसे समापन में कंपनी की साधारण सभा में एक या अधिक समापकों की नियुक्ति की जा सकती है तथा उनका पारिश्रमिक भी निर्धारित किया जाता है। समापक की नियुक्ति पर संचालक मंडल, प्रबंध अभिकर्ता या एजेंट, सचिव, कोषाध्यक्ष तथा प्रबंधकों के सभी अधिकारों का अंत हो जाता है, वह केवल रजिस्ट्रार को समापक की नियुक्ति तथा उसके स्थान की रिक्ति की सूचना देने का कार्य अथवा साधारण सभा वा समापक द्वारा अधिकृत कार्यों को कर सकते हैं।

ऋणदाताओं का ऐच्छिक परिसमापन

किंतु जब कंपनी अपने ऋणों का भुगतान करने में असमर्थ हो तथा संचालक इसकी शोधक्षमता की घोषणा न कर सकें, ऐसी परिस्थिति में किए जानेवाले समापन को ऋणदाताओं का ऐच्छिक समापन कहते हैं। ऐसे समापन में यह आवश्यक है कि जिस दिन समापन संबंधी प्रस्ताव पास करने के लिए साधारण सभा बुलाई जाए उसी या उसके अगले दिन ऋणादाताओं की सभा बुलाई जाए। कंपनी के सदस्य एवं ऋणदाता अपनी अपनी सभाओं में समापक का मनोनयन कर सकते हैं। यदि सदस्यों तथा ऋणदाताओं द्वारा मनोनीत व्यक्ति भिन्न भिन्न हों तो ऋणदाताओं द्वारा मनोनीत व्यक्ति ही कंपनी का समापक नियुक्त किया जाता है। ऋणदाता अपनी उक्त सभा या किसी आगामी सभा में पाँच सदस्यों तक की एक निरीक्षण समिति नियुक्त कर सकते हैं। समापक का पारिश्रमिक निरीक्षण समिति द्वारा, इसके अभाव में ऋणदाताओं द्वारा तथा ऋणदाताओं के भी अभाव में न्यायालय द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।

न्यायालय के निर्देशन के अंतर्गत परिसमापन

कंपनी द्वारा ऐच्छिक समापन के प्रस्ताव पास किए जाने के पश्चात्‌ न्यायालय इस प्रकार के समापन का आदेश दे सकता है। ऐसे आदेश से कंपनी का समापन तो ऐच्छिक ही रहता है किंतु वह न्यायालय के निर्देशों के अनुसार किया जाता है। इसका उद्देश्य कंपनी, ऋणदाताओं तथा अंशधारियों के हितों की रक्षा करना है। न्यायालय के निर्देशन के अंतर्गत समापन की याचिका का प्रभाव यह होता है कि न्यायालय को सभी वादों तथा वैध कार्यवाहियों पर उसी प्रकार अधिकारक्षेत्र प्राप्त हो जाता है जैसे न्यायालय द्वारा समापन की याचिका पर। निर्देशन आदेश के पश्चात्‌ न्यायालय को समापक के पदच्युत करने, उसकी रिक्ति की पूर्ति करने तथा अतिरिक्त समापक नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

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