प्राचीन आर्य इतिहास का भौगोलिक आधार

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परिचय

भारतीय आर्यों के प्राचीन इतिहास तथा भूगोल का अज्ञान, या तो हमारे आलस्य के कारण या हमारी बहुमूल्य ऐतिहासिक पुस्तकों के शत्रुओं द्वारा नष्ट हो जाने के कारण, अभी तक हमें पूर्ण निश्चय के साथ यह उद्घोषित करने का अवसर नहीं देता कि हमारी प्राचीन आर्य संस्कृति किस श्रेणी तक उस समय पहुंच चुकी थी, जिस समय आधुनिक नव्य-सभ्य राष्ट्रों का उदय तो कौन कहे, नाम व निशान भी नहीं था ! अवश्य ही हमारे प्राचीन इतिहास के अनुशीलन में योरपीय विद्वानों ने जो सहायता पहुंचायी है, वह बहुमूल्य है। विदेशी होकर भी आज तक उन लोगों ने जो कुछ किया, वह आशातीत और हमारी आंखें खोलने के लिये पर्याप्त है। हमारा इतिहास कुछ ख्रीष्टाब्द या विक्रमाब्द से मर्यादित नहीं; यह तो सृष्टि-सनातन और आधुनिक विद्वानों के मस्तिष्क रूपी अनुवीक्षण यन्त्र की दृष्टि से बाहर है। सच पूछा जाय, तो आर्यों का इतिहास ही विश्व का इतिहास है। आज तक यह कोई भी ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि आर्यों का सम्पूर्ण इतिहास विश्व की विद्वन्मण्डली को कब दृष्टिगोचर होगा। योरपीय विद्वानों ने अन्धकार से निकलने की युक्ति हमें बता दी है। अब तो हमारा कर्तव्य है कि अपने इतिहास का देदीप्यमान चित्र विश्व के सामने रख दें। पाश्चात्य विद्वानों की प्रायः यह धारणा रही है और है कि भारतवासी आर्य इतिहास लिखना या सुरक्षित रखना नहीं जानते थे। यह विवाद, जो किसी भी भारतीय विद्वान् को असह्य है, बहुत दिनों से चला आ रहा है। प्राचीन इतिहास के अनुशीलन के लिये प्रायः दो परिपाटी चल पड़ी हैं और ऐतिहासिक तत्त्वों का स्पष्टीकरण भी प्रायः दो ज़ुदे-ज़ुदे मार्गों से हो रहा है। पाश्चात्य विद्वान् अवश्य ही समय-निर्धारण में अत्यन्त संकोच और द्वेष बुद्धि से काम लेते आये हैं। यह आज बिल्कुल निर्विवाद है कि हमारे आर्य ऋषि-प्रवर साहित्य, ज्योतिष, विज्ञान, आयुर्वेद आदि समस्त कलाओं में उस पूर्णता तक पहुंच चुके थे, जो आज भी योरप के लिये स्वप्नवत् प्रतीत हो रही है। यह एक सत्य है, जिसे पहले तो नहीं, परन्तु अब प्रत्येक पाश्चात्य विद्वान् मुक्त-कण्ठ से स्वीकार कर रहा है। हाँ, समय निर्धारण का प्रश्न बड़ा ही जटिल है और वह भी इसलिये कि हमारे पास ऐतिहासिक प्रमाणों का अभाव-सा समझा जाता है। हमारे हृदय सम्राट् बाल गंगाधर तिलक का ’ओरायन’ ग्नन्थ इस दिशा में हमें बहुत कुछ प्रकाश में ला चुका है। उनका विचार एवं निष्कर्ष ज्योतिष, गणित और वैदिक ऋचाओं पर अवलम्बित है। सच तो यह है कि जिस समय हम थे, उस समय हमारी जाति के सिवा संसार में और कोई भी सभ्य जाति नहीं के बराबर थी। हमारी ऐतिहासिक प्राचीनता में एक ऐतिहासिक गौरव सन्निहित है। आज "हम" हम नहीं, आज बहुतेरे हम हो गये और इसी हमाहमी में एक भारतीय इतिहास ही नहीं, प्रत्युत विश्व इतिहास झगड़े की चीज़ बन गया। संसार में आर्य और अनार्य दो ही मुख्य जातियां हैं। आर्यों की शाखायें-प्रशाखायें इतनी बढ़ गयी हैं कि उस अन्धकार में इतिहास के पन्ने उलटना बड़ी विकट समस्या है। उस पर एक आश्चर्य यह कि सम्पूर्ण प्राचीन इतिहास के मुख्यतः दो ही आधार हैं-एक तो वैदिक साहित्य और दूसरे भौगोलिक आधार पर पृथ्वी की भिन्न-भिन्न सतहों की खोज। दिन-दिन हमारे इतिहास को नव-नव प्रकाश मिलता जा रहा है। आर्य-इतिहास एक बुझौवल या प्रहेलिका के रूप में हमें मिल रहा है। वैदिक साहित्य की व्याख्यान का रूप दिन-दिन विकसित और गम्भीर होता जा रहा है। सच पूछिये तो वैदिक साहित्य संसार-मात्र का साहित्य हो रहा है। इसमें सभी समान रूप से दिलचस्पी ले रहे हैं। कोई नहीं कह सकता कि भविष्य में हमारे आर्य इतिहास का क्या रूप होगा तथा हमारा अन्तर-राष्ट्रीय सम्बन्ध कैसा रहेगा। हमारा समस्त साहित्य विश्व का साहित्य हो रहा है। कौन कह सकता है कि हमारे दर्शन, साहित्य और इतिहास एक दिन विश्वमात्र के लिये दर्शन, साहित्य और इतिहास नहीं हो जायँगे ? विश्व आज उसी की पुनरावृत्ति कर रहा है, जो आर्य लोग कर चुके हैं; और सम्भवतः वहीं पहुँचेगा, जहाँ हम एक बार पहुँचकर भटक से गये हैं। यह एक ऐतिहासिक सत्य है। यह एक दिन सबके सामने आयेगा। इसी से कहा जाता है कि अन्तर-राष्ट्रीय मिलन का एकमात्र आधार भारतवर्ष होगा; क्योंकि उसकी कुंजी इसी के हाथ मॆं है।

हाँ, तो हमारा इतिहास आज एक प्रकार से प्रमाणों के अभाव में Mythology सा बन गया है। पुराण गप्प-सा बन गया है और रामायण और महाभारत को रूपक का रूप मिल गया है ! यह हमारे लिये लाचारी और लज्जा की बात है। भारतीय विद्वान् इसी गुत्थी के सुलझाने का प्रयत्न कर रहे हैं। विद्वद्वर श्रीयुत् के. पी. जायसवाल ने, बिहार और ओरिसा-रिसर्च-सोसाइटी के जर्नल में, गर्ग-संहिता के एक अध्याय के आधार पर यह साफ-साफ साबित कर दिया है कि भारतवासी इतिहास लिखना जानते थे, तथा गर्ग के ऐतिहासिक अध्याय से हम प्राचीन राजवंश के इतिहास तक निर्विघ्न पहुँच जा सकते हैं। बहुत निकट-भविष्य में महाभारत से आज तक का सुसम्बद्ध इतिहास हमारे सामने आ जायगा, ऐसी आशा की जाती है। गर्ग-संहिता का ऐतिहासिक विवरण ग्रीक विद्वानों के उस ऐतिहासिक विवरण से मिल जाता है, जो उन्होंने भारतवर्ष के बारे में लिखा है। जायसवालजी का यह प्रयत्न ऐतिहासिक संसार में युगान्तर पैदा कर सकता है। अपार संस्कृत-साहित्य के अनुशीलन से ही हम अपने इतिहास की खोज करने में सफल मनोरथ हो सकते हैं। लोकमान्य तिलक हमारे पथ-प्रदर्शक हो गये हैं; अब हमें आगे बढ़ना है। हमें इस लेख में भौगोलिक आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास के दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न करना है। इस सम्बन्ध में उपनिषद्, पुराण और महाभारत के भौगोलिक वर्णनों से हमें बहुत कुछ पता लग सकता है। श्रीमद्भागवत में तो भूगोल का पूर्ण ख़ाका ही खींचा गया है। इस लेख में मैं केवल भौगोलिक आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश करूँगा कि आर्य लोग भारतवर्ष में काबुल की ओर से न आकर काश्मीर की राह से आये और सिन्धु-नदी के किनारे-किनारे आकर सारे पंजाब में बस गये। पंजाब से वे पश्चिमोत्तर की ओर बढ़ते-बढ़ते काबुल नदी के आस-पास तक पहुँच गये और वहीं पर आर्यों की उस शाखा से उनकी मुठभेड़ हुई, जो ऑक्सस-नदी के पश्चिमोत्तर-प्रदेश Airya nem Vaejo (अरियानम् व्वज) अर्थात् ’आर्यानां व्रजः’ से आर्यों की भारतीय शाखा से विलग हो गयी। उनका भारतीय आर्यों से मतैक्य नहीं था, तथा वे भारतीय आर्यों को देव-पूजक कहने लगे थे। भारतीय आर्य उन्हें ’असुर’ कह कर पुकारते थे। ऋग्वेद में ’असुर’ शब्द का अर्थ वही नहीं है, जो आज समझा जाता है। पहले ’असुं राति लाति ददाति इति असुरः’ अर्थात् देवता के अर्थ में ’असुर’ शब्द प्रयुक्त होता था। अब इसका अर्थ हो गया है-’न सुरः असुरः’। इरानी आर्यों से भारतीय आर्यों की लड़ाई का मुख्य कारण बतलाना तो मुश्किल है, परन्तु इतना कहा जा सकता है कि इस द्वेष का कारण कुछ तो आर्थिक और कुछ धार्मिक था। हम ऋग्वेद में देखते हैं कि आर्यों के देवों की संख्या क्रमशः बढ़ती जाती है। अवेस्ता में वैदिक साहित्य के ब्राह्मण भाग का कोई भी संकेत नहीं मिलता। हाँ, ऋग्वेद की भाँति जिन्दा-अवेस्ता में मन्त्र और सूत्र अवश्य विद्यमान हैं। मन्त्र का रूप उसमें ’मन्थ्रन्’ है। पारसियों के पवित्र ग्रन्थों का नाम ’मन्थ्र-स्वेन्त’ है। अवेस्ता के देवताओं में- जो भारतीय आर्यों से मिलते-जुलते हैं-मित्र, वरुण, आर्यमन् और यमी (यम) है। वैदिक साहित्य में इधर आर्यों ने दिन-दिन विकास प्राप्त किया। विचार-धारा शाश्वत रूप से बहती गयी।

भारतीय आर्य तथा पारसियों की भौगोलिक स्थिति और आलोचना-अब भारतीय तथा पारसियों की भौगोलिक स्थिति पर सम्यक् विचार करके मैं यह स्पष्ट करूँगा कि किस तरह भारतीय साहित्य में वर्णित भूगोल की परिपाटी अवेस्ता के भूगोल से भिन्न है। पहले मैं संक्षेप में वायु-पुराण में वर्णित जम्बूद्वीप में आये देशों की सूची देता हूँ-

इदम् हैमवतं वर्षं भारतं नाम विश्रुतम्। हेमकूटं परं तस्मात् नाम्ना किम्पुरुषं स्मृतम्॥
नैषधं हेमकूटात् तु हरिवर्षं तदुच्यते। हरिवर्षात् परंचैव मेरोश्च तदिलावृतम्॥
इलावृतात् परं नीलं रम्यकं नाम विश्रुतम्। रम्यात् परं श्वेत विश्रुतं तत् हिरण्मयम्॥
हिरण्मयात् परं चापि शृंगवांस्तु कुरुः स्मृतम्। (वायु पुराण)

(१) हैमवत् वर्ष अर्थात् प्रसिद्ध भारतवर्ष,

(२) उसके बाद हेमकूट पर्वत है, जिसे किम्पुरुष देश कहते हैं,

(३) हेमकूट के बाद नैषध है, जिसे हरिवर्ष कहते हैं,

(४) हरिवर्ष के बाद मेरु-पर्वत के उत्तर इलावृत है,

(५) इलावृत के बाद नील वर्ष है, जो ’रम्यक’ नामसे प्रसिद्ध है,

(६) रम्यक के उत्तर श्वेत-प्रदेश है, जिसे हिरण्मय कहते हैं और

(७) हिरण्मय के बाद शृंगवान् है, जो कुरु नाम से प्रख्यात है।

इस प्रकार जम्बूद्वीप के अन्तर्गत वायुपुराण के अनुसार सात देश हुये। सातों देशों में सबसे उत्तर कुरु देश हुआ। यह ’कुरु’ कहाँ है सो ब्रह्माण्डपुराण के निम्न-लिखित श्लोक से स्पष्ट हो जाता है-

उत्तरस्य समुद्रस्य समुद्रान्ते च दक्षिणे। कुरवः तत्र तद्वर्षं पुण्यं सिद्ध-निषेवितम्॥

यह कुरु उत्तरीय समुद्र के दक्षिण की ओर बसा हुआ है। यहाँ सिद्ध पुरुष रहते हैं, जिनका नाम ’कुरु’ है।

अवश्य ही यह कुरु उत्तरसागर के दक्षिण रहा होगा, जो उत्तर ध्रुव के उत्तरीय वृत्त में बसा होगा। इससे लो. तिलक की सम्मति को कोई आघात नहीं पहुँचता। परन्तु प्रश्न यह होता है कि इस कुरु और भरत-खण्ड के कुरु में क्या सम्बन्ध है ? इसका समाधान मैं पीछे करूँगा। तब तक यह देख लेना चाहिये कि इस कुरु का हमारे पुराणों में कैसा वर्णन आया है। पद्मपुराण के निम्नलिखित श्लोक अनावश्यक नहीं कहे जा सकते-

उत्तरेण तु शृंगस्य समुद्रान्ते द्विजोत्तमाः। वर्षमैरावतं नाम तस्मात् शृंगवतः परम्॥
न तु तत्र सूर्यगतिः न जीर्य्यन्ति च मानवाः। चन्द्रमाश्च सनक्षत्रो ज्योतिर्भूत इवावृतः॥

अर्थात्, शृंग के उत्तर समुद्र के अन्त में ऐरावत वर्ष है, जहाँ ’द्विजों में श्रेष्ठ ’ रहते हैं। यह वर्ष शृंगवान् के बाद है तथा यहाँ पर न तो सूर्य की गति है, न मनुष्य जीर्ण होते हैं और स-नक्षत्र चन्द्रमा शाश्वत चमकते रहते हैं।

यहाँ उत्तरतम प्रदेश कुरु न होकर ऐरावत हो गया है। किन्तु पद्मपुराण के अनुसार उत्तर कुरु को इस मेरु और नील के मध्य में पाते हैं। जैसे-

दक्षिणेन तु नीलस्य मेरोः पार्श्वे तथोत्तरे। उत्तराः कुरवो विप्राः पुण्याः सिद्धनिषेविताः॥

इस श्लोक में हम ब्रह्माण्डपुराण की छाया तो अवश्य पाते हैं, परन्तु कुरु यहाँ उत्तर-कुरु होकर, उत्तर-ध्रुव के निकटवर्त्ती प्रदेशों से हटकर, मेरु और नील के मध्य में आ गया है। अवश्य ही यह आर्यों के स्थानान्तरित होने का सूचक है। आर्य लोग मध्य-एशिआ की ओर बढ़ते आते हैं और अपने प्रिय प्रदेश का नाम अपने साथ लेते आते हैं, जो मध्य-एशिआ से दक्षिण की ओर हटते-हटते, भरत-खण्ड में कुरु-पांचाल के रूप में परिवर्तित हो गया है। यह मैं उपसंहार में दिखलाऊँगा। तब तक मैं अन्य प्रमाण द्वारा यह सिद्ध करूँगा कि यही कुरु महाभारत में हरिवर्ष में किस प्रकार आ गया है।

अर्जुन की विजय-यात्रा और कुरु या उत्तरकुरु

महाभारत के सभा-पर्व में अर्जुन की विजय-यात्रा के प्रसंग में भी उत्तर-कुरु का उल्लेख आया है। इसमें उत्तर-कुरु लोगों का हरिवर्ष में रहना सिद्ध होता है। यह हरिवर्ष अब उत्तरीय ध्रुव के समीपवर्ती वृत्त के अन्तर्गत नहीं है। यह बहुत ही दक्षिण की ओर हटकर मानसरोवर के प्रदेशों के उत्तर में बतलाया जाता है। अर्जुन का विजय क्रम इस प्रकार है-वह पहले

(१) श्वेत पर्वत को पार कर किम्पुरुषों के रहने की जगह पर अर्थात् किम्पुरुष-वर्ष में जाते हैं, जो द्रुमराजा के पुत्र द्वारा रक्षित है।

(२) तदनन्तर उन्हें जीतकर और उनसे कर ले गुह्यकों से रक्षित ’हाटक’ नाम के देश में चले गये। उन्हें भी जीतकर वह मानसरोवर की ओर आगे बढ़ गये।

(३) उधर हाटक देश के बाद मानसरोवर के निकट ही गन्धर्वों का देश था। इस देश को भी जीतकर गन्धर्वों से तित्तिर-किल्मिष और मण्डूक-नामक घोड़े कर-स्वरूप उन्होंने ग्रहण किये।

(४) इससे उत्तर जाने पर उन्हें हरिवर्ष मिला। यहाँ महाकाय, महावीर्य द्वारपालों ने इनकी गति अनुनय-विनय करके रोक दी। उन लोगों ने कहा कि यहाँ मनुष्यों की गति नहीं, यहाँ उत्तर-कुरु के लोग रहते हैं; यहाँ कुछ जीतने योग्य चीज़ भी नहीं। यहाँ प्रवेश करने पर भी, हे पार्थ, तुम्हें कुछ भी नज़र नहीं आयेगा और न मनुष्य तन से यहाँ कुछ दर्शनीय ही है। उन लोगों ने पुनः पार्थ की मनोवांछा की जांच की। पार्थ ने कहा कि मैं केवल धर्मराज युधिष्ठिर के पार्थिवत्व का स्वीकार चाहता हूँ। इसलिये युधिष्ठिर के लिये कर-पण्य की आवश्यकता है। यह सुनकर उन लोगों ने दिव्य-दिव्य वस्त्र, क्षौमाजिन तथा दिव्य आभरण दिये।

स श्वेतपर्वतं वीरः समतिक्रम्य वीर्यवान्। देशं किम्पुरुषावासं द्रुमपुत्रेण रक्षितम्॥
महता सन्निपातेन क्षत्रियान्तकरेण ह। अजयत्पाण्डवश्रेष्ठः करे चैनं न्यवेशयत्॥
तं जित्वा हाटकं नाम देशं गुह्यकरक्षितम्। पाकशासनीव व्यग्रः सहसैन्यः समासदत्॥
सरो मानसमासाद्य हाटकानभितः प्रभुः। गन्धर्वरक्षितं देशमजयत् पाण्डवस्ततः॥
तत्र तित्तिरकिल्मिषान् मण्डूकाख्यान् हयोत्तमान्। लेभे स करमत्यन्तं गन्धर्वनगरात्तदा॥
उत्तरं हरिवर्षन्तु स समासाद्य पाण्डवः। इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दनः॥
तत एनं महावीर्या महाकाया महाबला। द्वारपालाः समासाद्य हृष्टा वचनमब्रुवन्॥
पार्थ नेदं त्वया शक्यं पुरं जेतुं कथंचन। उपावर्तस्व कल्याण पर्याप्तमिदमच्युत॥
न चात्र किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते। उत्तराः कुरवो ह्येते गात्रयुद्धं प्रवर्तते॥
प्रविष्टोऽपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि किंचन। नहि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम्॥
... पार्थिवत्वं चिकीर्षामि धर्मराजस्य धीमतः।..युधिष्ठिराय यत्किंचित् करपण्यं प्रदीयताम्॥
ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च। क्षौमाजिनानि दिव्यानि तस्य ते प्रददुः करम्॥
-- (महाभारत, सभापर्व)

कालिदास और मेघदूत

कालिदास के बतलाये हुये मेघ की राह में मिलने वाले प्रायः सभी नद-नदी, गिरि और नगर का पता आज चल गया है। कनखल यानी हरिद्वार तक या कैलाश तक तो हम मान जाते हैं, परन्तु इसके उत्तर गन्धर्वों की नगरी अलकापुरी को हम कोरी कल्पना समझते हैं। कम-से-कम हम इतना मानने को तैयार नहीं होते कि यह भी भौगोलिक सत्य है। अर्जुन श्वेत-पर्वत यानी हिमालय पार कर उत्तर की ओर बढ़े; परन्तु इसे हम कवि-कल्पना से बढ़कर और कुछ मानने के लिये अभी तैयार नहीं। यह मेघ की राह तो और भी कल्पना है। परन्तु इसके पूर्व हम यह दिखलाना चाहेंगे कि बौद्ध लोग किस प्रकार हिमालय के उत्तर-प्रदेशों से अपना सम्बन्ध रखते हैं। बिहार-नेशनल-कालेज के प्रिन्सिपल श्रीयुत् देवेन्द्रनाथ सेन् एम्.ए., आई.ई.एस्. ने अपने Trans-Himalayan-Reminiscences in Pali-literature नामक निबन्ध में यह बहुत ही अच्छी तरह से दिखलाया है कि बौद्धों का प्रभाव हिमालयोत्तर-प्रदेश में ही इतना अधिक क्यों पड़ा तथा बौद्ध लोग मानसरोवर के निकटवर्ती प्रदेशों के ही इतने प्रेमी क्यों हुये। उन्होंने बौद्ध जातकों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि भारतीय आर्यों का प्रेम हिमालयोत्तर-प्रदेश से कुछ नैसर्गिक-सा था। हम उनके निकाले हुये निष्कर्ष को अस्वीकार नहीं कर सकते।

गर्ग-संहिता और भारतीय इतिहास

महाभारत के पश्चात् के इतिहास का दिग्दर्शन गर्गाचार्य ने अपनी गर्ग-संहिता में किया है। ऊपर लिखा जा चुका है कि श्रीयुत के. पी. जायसवाल ने Behar & Orissa Research Society के Journal में, गर्गसंहिता के ‘युग-पुराण’ नामक अध्याय के आधार पर, किस प्रकार जनमेजय से लेकर ख्रीष्टाब्द से दो शताब्दी पूर्व तक के इतिहास का दिग्दर्शन कराया है। गर्गाचार्य ने कृष्णा (द्रौपदी) की मृत्यु के बाद से भारतीय इतिहास लिखा है। उनके इतिहास की परिपुष्टि प्राचीन मुद्राओं, विदेशी विद्वानों के रेकर्ड तथा स्वतन्त्र प्रमाणों से भी होती है। उन्होंने जनमेजय और ब्राह्मणों के बीच वैमनस्य का जिक्र किया है। दूसरी बात, जो गर्ग-संहिता से विदित होती है, यह है कि महाभारत के बाद धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म का केन्द्र तक्षशिला से हटकर मगध के पाटलिपुत्र में आ गया। जनमेजय की राजधानी तक्षशिला है और उसकी ब्राह्मणों से शत्रुता है।

महाभारत के बाद वैदिक धर्म

महाभारत के बाद अवश्य ही ब्राह्मण धर्म यानी वैदिक धर्म के विरुद्ध आन्दोलन उठने का संकेत पाया जाता है। ऐसा क्यों हुआ, यह उस समय का इतिहास ही बतला सकता है। हिन्दू प्रणाली के अनुसार महाभारत का समय ख्रीष्टाब्द से ३,००० वर्ष के लगभग पहले माना जाता है और यह समय पाकर सत्य भी साबित हो सकता है। हमें विदित ही है कि ख्रीष्ट से पूर्व सातवीं शताब्दी के मध्य में बुद्धदेव और महावीर-जैन का उदय हुआ। स्वभावतः इस धार्मिक क्रान्ति के सफल होने में २,४०० वर्ष का समय बहुत नहीं है। वैदिक काल से ही हमारे धार्मिक विचार में परिवर्तन होते आये हैं और हिन्दू दर्शन के क्रमिक विकास का भी हमें पता मिल जाता है। तब वैदिक काल के अनेकेश्वरवाद से (जिसमें एकेश्वरवाद का बीज-वपन हो गया है) उपनिषत्काल के एकेश्वरवाद तक हम आ जाते हैं। एकेश्वरवाद के बाद हमें ब्रह्मवाद मिलता है, जिससे वेदान्त की उत्पत्ति हुई। इस ब्रह्मवाद में मायावाद सम्मिलित है। संसार माया का जाल और ब्रह्म ही एक सत्य समझा जाता है। परन्तु इसी ब्रह्मवाद और मायावाद की धूम के बाद पुरुष और प्रकृति-वाद का आन्दोलन जाग्रत् हो जाता है। ब्रह्म पुरुष और माया प्रकृति बन जाती है। इस विचार विकास में पर्याप्त समय लगा होगा। आते-आते सूत्रकाल में हमें कपिल का सांख्य-सूत्र मिलता है। यद्यपि सांख्यकारिका सांख्यधर्म के उदय के बहुत दिनों के बाद एक विशिष्ट दर्शन के रूपमें प्रकट हुई, तथापि हम इसे कम-से-कम बौद्ध धर्म से ५-६ सौ वर्ष पूर्व समय देने में कोई आपत्ति नहीं समझते। मैकडानेल्ड महोदय भी ख्रीष्टाब्द से १,००० वर्ष पूर्व सांख्यधर्म का उदय होना तो कम-से-कम स्वीकार ही करते हैं। सांख्य के आधिभौतिक धर्म को हम बौद्धों या जैनों के धर्म का मूल -कारण समझते हैं। कपिल अपने विचार के कारण नास्तिक समझे गये। धीरे-धीरे ४०० वर्षों तक नास्तिकता का, जैसा कि उस समय समझा गया, विकास होता गया। इन्हीं चार-सौ वर्षों में चार्वाक आदि का भी प्रादुर्भाव हुआ। अथर्व-काल के बाद हमें तन्त्र-धर्म का भी सूत्रपात होते देख पड़ता है। धीरे-धीरे यह तन्त्रवाद ज़ोर पकड़ता गया और वैदिक धर्म का रूप विकृत होता गया। यही तन्त्रवाद सम्भवतः शाक्त-धर्म का मूल-कारण रहा। गौतम बुद्ध के समय तक साधारण जनमानस में हिंसा का पूर्णतः प्रचार हो गया होगा।

महाभारत के बाद बौद्धकालीन इतिहास का अदर्शन

परीक्षित के पुत्र जनमेजय के समय से ही ब्राह्मणों के विरुद्ध दुर्भाव फैलने लगे और यही कारण है कि तक्षशिला छोड़कर ब्राह्मणधर्मावलम्बी आर्य मगध की ओर आ गये। गर्ग-संहिता के आचार्य गर्गजी ब्राह्मणधर्म का अनुयायी होने के कारण अवश्य ही बौद्ध या उसके पूर्व के इतिहास का दिग्दर्शन कराने से बाज़ आये से मालूम पड़ते हैं। सच पूछिये, तो संस्कृत साहित्य ही इस विषय में बिल्कुल चुप है। वह अवश्य ही परस्पर विद्रोह और अशान्ति का समय रहा होगा। गर्ग के सामने अवश्य ही ऐतिहासिक ग्रन्थ मौजूद रहे होंगे; परन्तु उन ग्रन्थों में नास्तिकों की कथा न लिखी गयी हो, यह सम्भव प्रतीत होता है। फलतः बौद्ध साहित्य के अनुशीलन के बिना भारतीय इतिहास का पूरा पता नहीं पा सकते।

बौद्ध जातकों में हिमालयोत्तर-प्रदेश

फिर भी हम प्रसंगानुसार बौद्ध जातकों में आये हुए हिमालयोत्तर-प्रदेशों का वर्णन करेंगे। यद्यपि ये गल्पवत् प्रतीत होते हैं, तथापि हम उत्तर कुरु के सच्चे अस्तित्व का पता पा जाते हैं। ’मिलिन्दपन्ह’ में ’सागल’ नगर की उत्तर-कुरु से तुलना की है, जैसे-’उत्तरकुरु संकासं सम्पन्न सस्यं’। विधुर पण्डित के जातक में भी हम उत्तर-कुरु के दक्षिण में जम्बूद्वीप को पाते हैं। स्मरण रखना चाहिये कि यहाँ पर जम्बूद्वीप ख़ास भारत समझा गया। जैसे-

पुरतो विदेहे पस्स गोयानिये च पच्छतो करुयो। जम्बूदीपंच पस्स मणिम्हि पस्स निमित्तं॥
इसके अनन्तर फिर भी हम निम्न-लिखित वाक्य मिलता है-

विदेहेति पुव्वविदेहं गोयानिर्यति अपरगोयानिदीपं; कुरयो ति उत्तरकुरु च दक्षिणतो जम्बूदीपंच।
अर्थात् विदेह पूर्व-विदेह को, गोयानिर्य अपरगोयानि-द्वीप को, कुरु उत्तर-कुरु को और उसके दक्षिण जम्बूद्वीप को कहते हैं। इससे उत्तर-कुरु का हिमालय से उत्तर होना सिद्ध हुआ। इस उत्तर-कुरु के बासिन्दे भी जम्बूद्वीप (भारत के अर्थ में) के बासिन्दों से अच्छे समझे गये हैं। जैसे-
तीहि भिक्खवे ठानेहि उत्तरकुरुका मनुस्सा देवे च तावतिंसे अधिगण्हन्ति जम्बूदीपके च मनुस्से। कतमेति तीहि ? अमना च, अपरिग्गहा, नियतायुका, विसेसभुजो।
अर्थात् तीनों बातों में उत्तर-कुरु के मनुष्य और तावतिंस के देव जम्बूद्वीप के मनुष्यों से भिन्न हैं। वे तीन कौन-कौन सी ? वे निर्मम हैं यानी मायारहित हैं, परिग्रह नहीं लेते, अमर हैं तथा कोई विशेष भोजन खाने वाले हैं।

मानसरोवर या अनोतत्तमहासर

श्रीयुत देवेन्द्रनाथ सेन ने ’पालीसुत्त’ के आधार पर अनोतत्तमहासर का मानसरोवर होना साबित किया है। पाली-सूत्रों में सात नदियों का वर्णन पाया जाता है; जैसे-अनोतत्त, सिंहपपात, रथकार, कण्णमुण्ड, कुणाल, छ्द्धन्त और मन्दाकिनी। हिमालय से निकली नदियाँ गंगा, यमुना, अचिरावती, सरभू और मही है। ’सरभू’ सम्भवतः सरयू और अचिरावती वैदिक काल की सदानीरा है। मही उत्तर बिहार की एक प्रसिद्ध नदी है। अनोतत्त का अर्थ अनवतप्त है। सूत्रों के अनुसार यह झील उत्तर-कुरु में है; क्योंकि उत्तरकुरु में बोधिसत्त्व और बौद्ध भिक्षु लोग भिक्षाटन कर, अनोतत्त दह में विश्राम करते थे।

कीथ और मैकडानेल्ड की सम्मति

The Uttar Kurus who play a mythical part in the epic and later literature, are still a historical people in the ऐतरेय ब्राह्मण where they are located beyond the Himalayas (परेण हिमवन्तम्). In another passage, however, the country of the Uttar Kurus is stated by Vashishtha Satyahavya to be a land of Gods (देवक्षेत्र), but जानन्तापि अत्याराति was anxious to conquer it, so that it is still not wholly mythical.-Keith.

The territory of the Kuru Panchal is declared in the ऐतरेय ब्राह्मण to be the middle country (मध्यदेश). A group of the Kuru people still remained further north-the Uttar Kurus beyond the Hiamlayas. It appears from a passage of the शतपथ ब्राह्मण that the speech of the Norherners-that is presumably the Norhern Kurus-and of the Kuru Panchal was similar and regarded as specially pure. There seems little doubt that the Brahmanical culture was developed in the country of the कुरुपांचाल and that it spread then east, south and west-Macdonald.

स्पष्ट है कि उत्तर-कुरु हिमालय के उत्तर में है और ऐतरेय ब्राह्मण के समय में यह एक ऐतिहासिक प्रदेश रहा है, जहाँ से और कुरुपांचाल से प्रत्यक्ष सम्बन्ध था। सम्भवतः कुरुपांचाल-निवासी उत्तर-कुरु के ही वंशधर और शाखा हैं। इस उत्तर-कुरु का भौगोलिक विकास हमारे इतिहास के लिये परम आश्चर्यजनक और महत्त्व की चीज़ है। इससे आर्यों का क्रमशः उत्तरीय ध्रुव के प्रदेशों से आते-आते सिन्धु-नदी के तटवर्त्ती प्रदेश की राह से भारतवर्ष अर्थात् जम्बूद्वीप में आना सिद्ध होता है। आर्यों के हिमालय की तराई से आने के लिये कई मार्ग हो सकते हैं। यह काश्मीर से तिब्बत (त्रिविष्टप) तक विस्तीर्ण है। इस संकटापन्न मार्ग का संकेत हमें ऋग्वेद के सूत्रों से भलीभाँति मिल जाता है। इरानी आर्य कहाँ से भारतीय आर्यों से विलग हुये, यह आगे बतलाया जायगा। हमारा साहित्य हिमालयोत्तर प्रदेश की पुण्य-स्मृतियों से ओतप्रोत है। कभी किसी का ध्यान काबुल की ओर नहीं गया। क्यों ? यह हम उपसंहार भाग में दिखलाएँगे। स्वर्ग के अस्तित्व की धारणा हमारे मन से अभी तक नहीं गयी है। यह हमारी विकट भूल होगी, यदि हम इस प्रत्यक्ष ऐतिहासिक तथ्य को खुले दिल से स्वीकार न करें।

बौद्ध धर्म के हिमालयोत्तर-प्रदेश में प्रचार का नैसर्गिक कारण

दूसरी बात जिसे भूलने की सामर्थ्य नहीं, यह है कि बौद्ध धर्म का प्रचार हिमालय से उत्तर ही व्यापक रूप में हुआ। इस नैसर्गिक प्रचार का मूल कारण भी नैसर्गिक हो सकता है। चीनी यात्री फ़ाहियान और हुएनसांग के वर्णन इसके लिये पर्याप्त हैं। फ़ाहियान को, भारत में प्रवेश के पूर्व, खोटन आदि स्थानों में बौद्ध धर्म का पूर्णतः प्रचार मिला। हीनयान-पन्थ के हज़ारों भिक्षु उत्तर की ओर गये। शेनशेन में हीनयान और खोटन में महायान-सम्प्रदाय का प्रचार पाया गया। सर्वत्र संस्कृत और पाली का बोलबाला था। हुएनसांग को, जो गोबी (ओकिनि अर्थात् अग्नि) की मरुभूमि से आया, भारतीय लिपि से ही मिलती-जुलती लिपि गोबी के आसपास के प्रदेशों में मिली। बुद्धदेव की मूर्ति, संघाराम तथा अनेक मन्दिर भी मिले। वह अक्षु से होता हुआ आक्सस की तराई में आया और वहाँ से बल्ख़ चला गया। यह बल्ख़ अपने मन्दिरों की बहुलता के कारण राजगृह कहा जाता था। आश्चर्य नहीं, यदि सर आरेलस्टेन को खोटन की बालुका के अन्दर संस्कृत और प्राकृत के गड़े हुए ग्रन्थ मिले। उधरके शहरों के नाम तक संस्कृत और प्राकृतमय हैं। प्रिन्सिपल सेन के अनुसार यह भारतवर्ष से पूर्व तुर्किस्तान के परस्पर-संसर्ग का अचूक सम्भवनीय प्रमाण है। यह संसर्ग वैदिक सभ्यता से भी पूर्व का होगा।

ईरानी आर्यों की शाखा कब और कहाँ से अलग हुई?

अब हम अपनी लक्ष्य-पूर्ति के लिये उन आर्यों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं, जो भारतीय शाखा से अलग हो ईरान की ओर चले गये। हम ऊपर कह चुके हैं कि भारतीय आर्य उस स्मरणातीत समय में अलग हुए, जब उनके वैदिक देवताओं की संख्या बहुत बढ़ने नहीं पायी थी। ’आर्यानां व्रजः’ कहाँ है-इसका स्पष्टीकरण ही इन दोनों शाखाओं के अन्तिम मिलन का इतिहास होगा। वे अवश्य ही उस समय विलग हुए, जब वे ’आर्यानां व्रजः’ में रहते थे। सेन महोदय ने आक्सस-नदी के कहीं पश्चिमोत्तर-प्रदेश में इसका होना बतलाया है। अतएव यह कैस्पियन या कश्यप सागर के दक्षिण-पूर्ववर्त्ती प्रान्त में कहीं हो सकता है। ज़ेन्दावेस्ता के भौगोलिक वर्णन से यह बात स्पष्ट हो जायगी। किन्तु भौगोलिक वर्णन के पूर्व यह निश्चय कर लेना उचित है कि आर्यों के इस परस्पर वैमनस्य का कारण क्या हो सकता है।

दिति और अदिति की कथा तथा आर्यों का परस्पर संघर्ष

कश्यप ऋषि की दो पत्नियों से दैत्यों और आदित्यों की उत्पत्ति की कथा सबको विदित है। बहुत सम्भव है, कश्यप-सागर के आसपास ही कश्यप ऋषि का रहना हुआ हो। दैत्य और आदित्य की कथा में देवासुर-संघर्ष का आभास मिल जाता है। पारसियों के इष्टदेव ज़ोरोस्टर को ज़ेन्दावेस्ता में ’मंथ्रन’ कहा गया है। आर्यों के प्राचीन इष्टदेव पारसी और भारतीय आर्यों के बिलकुल एक ही हैं। ज़ोरोस्टर ने आर्यों से मतभेद होते ही देव-पूजक आर्यों के विरुद्ध बग़ावत शुरु कर दी। ऋग्वेद के प्राचीन सूक्तों में सुर और असुर की भिन्नता न होने पर पीछे यह भेदभाव बहुत प्रबल हो गया है। असुरों के विरुद्ध देवदल और देवदल के विरुद्ध असुरदल पीछे प्रकट हो गये हैं। आश्चर्य तो यह है कि जिस तरह फ़ारस यानी ईरान में देव का अर्थ राक्षस हो गया है, उसी प्रकार भारतवर्ष में भी असुर का अर्थ राक्षस ही समझा जाता है ! मुसलमानों के "हिन्दू" शब्द की व्याख्या में भी यही भेदभाव सन्निहित पाया जाता है, जिसका अर्थ वे कुछ और ही करते हैं। कम-से-कम इतना तो निश्चित है कि भारतीय तथा पारसी आर्य किसी बड़ी बात को लेकर ही एक दूसरे से ज़ुदा हुए। धार्मिक विकास अधिकतर भारतीय आर्यों के ही द्वारा हुआ। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारतीय शाखा का झुकाव इस ओर अधिक था तथा उनकी विचारधारा दिन-दिन आगे की ओर बढ़ती गयी। चाहे ये दोनों दल आक्सस-नदी के आसन्न प्रान्तों से विलग हुए हों चाहे और किसी स्थान से, परन्तु वे अलग हुए विकट वैमनस्य के बाद ! यह बात तब और भी पुष्ट हो जाती है, जब हम देखते हैं कि दोनों शाखाओं के मार्ग दो हो गये। ईरानी शाखा को सहज मार्ग मिला और भारतीय शाखा को पहाड़ी प्रदेशों की शरण लेनी पड़ी। ऋग्वेद की एक-एक पंक्ति से, पथ की दुर्गमता दूर करने के लिये, एक आहभरी दीन प्रार्थना प्रकट होती है। भारत में आ जाने पर आर्यों को ऐसी कठिनाई नहीं थी कि उन्हें पग-पग पर अत्याचारी शत्रुओं के नाश के लिये इष्टदेवों की दुहाई देनी पड़ती। अत्याचार-प्रिय अन्य शाखा से हार मानकर ही इन्हें यह मार्ग पकड़ना पड़ा होगा।

अवेस्ता से भौगोलिक ज्ञान तथा उससे ईरानी शाखा के इतिहास पर प्रकाश

यह निश्चित करने के पूर्व कि आर्य लोग उत्तर की ओर से दक्षिण की ओर हिमालय के मार्ग से आये और आर्यावर्त्त के कुरुक्षेत्र तक फैलते-फैलते अपने प्राचीन उत्तर-कुरु की स्मृति में कुरुक्षेत्र का उद्घाटन जम्बूद्वीप में किया, यह जान लेना जरूरी है कि ईरानी शाखा किस मार्ग से यहाँ आकर बसी और कालान्तर में उसकी स्थिति और मनोवृत्ति कैसी रही। अहुर (असुर) मज़्द ने, जो ईरानी शाखा के ज़ोरोस्टर-सम्प्रदाय के नायक थे, १६ प्रदेश बसाये थे, जिनमें निम्नलिखित प्रदेशों का आधुनिक प्रदेशों से मिलान हो चुका है-

ज़ेन्द-नाम           आधुनिक नाम 
१-आर्यानेम वेजो        सं. आर्यानां व्रजः (आक्सस के निकट)
२-सुग्ध (Sugdha)   सग्ध (समरकन्द)
३-मौरू (Mouru)    मर्व (Marv)
४-बख्धी (Bakhdhi)   बल्ख (Balkha)
५-हेरोयू (Haroyu)   हेयर (Hare) या हेरात
६-हफ़्तहिन्दु      सप्तसिन्धु (पंजाब)
 (Fargard I, of the Vendidad)
 

ऊपर की तालिका से स्पष्ट है कि ईरानी शाखा भारतीय शाखा से अलग हो पहले पहल ’आर्यानां व्रजः’ (Aryanem vaejo) में ही रही। इसका अर्थ है कि आर्यों की भूमि। इस नामकरण से यह स्पष्ट है कि वे भी आर्य-शब्द की स्मृति में अपने वासस्थान का नाम रखना पसन्द करते थे। यह व्रज Vanguhi Daliya पर बसा हुआ समझा जाता है। यह नदी आक्सस-नदी के कहीं उत्तर-पश्चिम की ओर थी। इसके बाद वे लोग क्रमशः समरकन्द, मर्व, बल्ख, हेरात, काबुल और सप्तसिन्धु अर्थात् पंजाब की ओर बढ़ते गये। इस भौगोलिक वर्णन में एक बात, जिस पर हमें विचार करना है, यह है कि जिस प्रकार हमारे साहित्य में मेरु या उत्तर-कुरु से आरम्भ कर किम्पुरुषवर्ष आदि होते हुये हिमवन्त और जम्बूद्वीप का क्रमिक सम्बद्ध वर्णन है, उसी प्रकार और ठीक उसी प्रकार ईरानियों की गति का सिलसिला भी पाया जाता है। किसी भी सुधी को एक नज़र डालने से यह स्पष्त विदित हो जाता है कि दोनों शाखाओं के दो भिन्न-भिन्न मार्ग हैं; दो भौगोलिक सम्प्रदाय हैं; दोनों के वियोग के अनन्तर भिन्न-भिन्न देवता हैं ! एक बात और; ’आर्यानां व्रजः’, Celestial Mountain (स्वर्गीय पर्वत)-जिसका नाम Thianshan भी है-के ठीक निकटवर्त्ती प्रदेश हैं। दोनों शाखाओं के विद्रोह पर दृढ़ विश्वास तब और भी हो जाता है, जब हम यह देखते हैं कि इन्द्र, जो भारतीय शाखा के आराध्य देव हैं, पारसियों के लिये एक दुर्दान्त दैत्य हैं। ऋग्वेद की ऋचाएँ इसकी साक्षी हैं। इन्द्र, जिनके आर्य लोग बड़े कृतज्ञ हैं, बारबार अपनी वीरता की प्रशंसा सुनते हैं। उन्होंने असुरों का दल-बल नष्ट कर आर्यों की सहायता की है। देव और असुरों की लड़ाई में वह सदा अग्रसर रहते हैं। इन्द्र इन्हीं स्वर्गीय पर्वतों पर रहते थे। सुमेरु-पर्वत का निर्देश हमें Thianshan या Celestial या स्वर्गीय पर्वतों में मिल जाता है। अवश्य ही सुर और असुरों का यह घोर युद्ध ईरान के पूर्वी सीमा-प्रान्त में हुआ होगा। Vendidad के वर्णनानुसार मर्व (Merv) पापपूर्ण और नष्ट-भ्रष्ट हो गया था। इसी प्रकार निशय (Nisaya) जो मर्व और बल्ख के अन्तर्गत था, पाप और नास्तिकता का परिपोषक था, हेरात अश्रुपात और विकल वेदना से परितप्त था; और Vaekereta या काबुल में बुतपरस्ती बढ़ रही थी, तथा किरिसस्प (Keresaspa) देवपूजक बन गये थे।

ये दोनों शाखायें कब और कहाँ अलग हुईं, इसका ठीक-ठीक अंदाज़ा करना कठिन है; परन्तु इतना अनुमान किया जा सकता है कि आक्सस के दक्षिण और थियानशान या मेरु-पर्वत-माला के निकटवर्ती प्रदेशों में कहीं इनके दो दल हुए। इन्द्र भारतीय शाखा के प्रमुख जान पड़ते हैं। अहुरमज़्द के नेतृत्व में दूसरा दल रहा होगा। एक का दूसरे को विधर्मी समझना तथा एक का दूसरे के इष्टदेव को दैत्य बनाना धार्मिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा है। अस्तु, ज़ेन्दा अवेस्ता ’आर्यानां व्रजः’ से मर्व, बल्ख, ईरान, काबुल और सप्तसिन्धु का निर्देश देता है। इससे यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि ईरानी शाखा यानी पारसी, आर्यों से विलग हो, ईरान की अधित्यका को तय करते हुए काबुल की राह से सप्तसिन्धु तक फैल गये। भारतीय शाखा भी काबुल की राह से आयी, यह अत्यन्त ही सन्देहास्पद सिद्धान्त है। जब हम देखते हैं कि ज़ेन्दावेस्ता अपने भूगोल का मानचित्र इस प्रकार खींचता है तथा वैदिक साहित्य का काबुल से ही अपना बयान प्रारम्भ कर पूर्व की ओर बढ़ता है, तब हम दो ही निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं- एक तो यह कि आर्य लोगों के सप्तसिन्धु से ही दो दल हो गये और ईरानी शाखा सप्तसिन्धु से पश्चिमोत्तर-प्रदेश की ओर बढ़ चली। और, दूसरे यह कि भारतीय शाखा उत्तर की ओर से सीधे सिन्धु-नदी की राह से आयी तथा सप्तसिन्धु में फैलकर पूर्व की ओर बढ़ने लगी। इसी बीच में, जब कि पामीर, काराकोरम और सिन्धु के मार्ग से काबुल तक फैल गयी, ईरानी शाखा भी पूर्व निर्दिष्ट मार्ग से काबुल तक फैल गयी। सम्भवतः यहाँ फिर उनकी ईरानियों से मुठभेड़ हो गयी। दोनों शाखाओं का लक्ष्य सप्तसिन्धु की ओर ही था, यह एक सन्देह की बात हो सकती है; परन्तु हम ज़रा अधिक विचार करके देखते हैं, तो साफ़ प्रकट हो जाता है कि दोनों दल के विस्तार के लिये दूसरा कोई क्षेत्र नहीं था। थियानशान के पूर्व थोड़ी ही दूर पर गोबी की मरुभूमि दीख पड़ती है। उस समय इस मरुभूमि का क्या रूप था, सो तो ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता; परन्तु या तो यह समुद्र था या जैसा कुछ भूतत्त्वविशारदों का कथन है, या यह पहाड़ी-धूसरित चट्टानों की राशि थी। भूतत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि साइबेरिया जिस अवस्था में आज है, उसी अवस्था में कभी मध्य-एशिया का यह भाग रहा होगा। साइबेरिया में प्राचीन कालीन वन के चिह्न मिलते हैं और ऐसा अनुमान किया जाता है कि किसी समय इसकी आबोहवा ऐसी थी कि मनुष्य यहाँ रह सकते थे। तात्पर्य यह कि भारतीय शाखा को सिवा मानसरोवर से जाकर तिब्बत तक फैलने के दूसरा कोई चारा नहीं था। सम्भवतः वे भारतवर्ष में एक ही बार नहीं आये, अपितु समय समय पर अपनी सुविधानुसार आते रहे।

ऋग्वेद के सूक्तों में ईरान की अधित्यका या काबुल के पश्चिमी प्रदेशों का आभासन मिलकर हिमालयोत्तर-प्रदेश की स्मृति का आभास मिलता है-ऋग्वेद के अध्ययन से इस बात का पता चल जायगा कि जिन प्राकृतिक दृश्यों को देखकर आर्य-ऋषि मन्त्रमुग्ध हो अपनी सरल परिमार्जित कविता की अंजलि समर्पित करते थे, वे प्राकृतिक दृश्य हिमवन्त के इस पार या उस पार ही सुलभ हैं। उन स्तुतिपूर्ण कविताओं में वे प्रकृति का दृश्य खींचते तथा अपने मंगल और विभव की अभ्यर्थना करते हैं। लोकमान्य जिन सूक्त या ऋचाओं के आधार पर आर्यों को हिमालयोत्तर-प्रदेशों के आदि-निवासी बताते हैं, वे सूक्त उनकी स्मृति के जीते जागते चित्र हैं। सम्भवतः आज कोई भी लो. तिलक के सिद्धान्तों का खण्डन सफलतापूर्वक नहीं कर सकता। चाहे आर्य पहले-पहल उत्तर ध्रुव के निकटवर्ती वृत्त के निवासी रहे हों चाहे और इधर आकर साइबेरिया के मैदान में बसे हों, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि वे आये उसी दिशा से और अन्त तक, आर्यावर्त में बस जाने तक, अपनी पुण्य-स्मृति को ताज़ा रखते गये। उत्तर-कुरु के भौगोलिक निर्देश से यह स्पष्ट ही प्रकट हो जाता है कि आर्य लोग अन्त तक ’कुरु’ शब्द से प्रेम रखते गये। आर्यों का यह ऐतिहासिक और भौगोलिक सिलसिला ठीक उतना ही सत्य है, जितना उनका प्राकृतिक दृश्यों का मनन कर दर्शन और ज्योतिष-शास्त्र का विकास करना। ऋग्वेद के कौन सूक्त कब रचे गये, यह सन्दिग्ध होने पर भी यह कहा जा सकता है कि कौन सा सूक्त किस विषय को निर्दिष्ट कर रहा है। हम नीचे उन सूक्तों को देते हैं, जिनकी व्याख्या तिलक के बाद सभी वैदिक विद्वान् करने लगे हैं-

अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृशे कुहचित् दिवेयुः ?
अद् वधानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशत् चन्द्रमा नक्तमेति।

अर्थात् वे ऋक्ष (सप्तर्षि), जो उच्च गगन-मण्डल में स्थित हैं, रात में देखे जाते हैं। वे दिन में कहाँ चले जाते हैं ? वरुण के कामों को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। उन्हीं की आज्ञा से चन्द्रमा रात में चान्दनी देते हैं।

यह ऋचा उस समय बनी होगी, जब आर्य लोग उत्तर-ध्रुव के प्रदेशों से हटकर बहुत इधर आ गये होंगे। तिलक महोदय ने ऋचाओं के बल पर यह दिखलाया है कि वे जहाँ रहते थे, वहाँ एक ही तारा (उत्तर-ध्रुव) बराबर प्रकाशित था, जहाँ दिन कम और रात बहुत बड़ी होती थी। यह उत्तरीय प्रदेशों का चित्र है। उपर्युक्त ऋचा वहीं बनी, जहाँ दिन-रात क्रम से होते रहे होंगे और चन्द्रमा का भी उदय होता होगा। पवेपयन्ति पर्वतान् विविंचन्ति वनस्पतीन्। प्रो आरत मरुतो दुर्मदा इव देवासः सर्वथा विशा॥ अर्थात् पर्वतों को हिलाते हुए, वृक्षों को गिराते हुए, हे मरुतो ! तुम मदमत्त देवों की भाँति अबाध रूप से चलते हो।

दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठत् निरुद्धा आपःपणिनेव गावः।
अपां विलमपि हितं यदासीत् वृत्रं जघन्वा अप तत् ववार॥

अर्थात् पणि द्वाराछिपायी गायों की भाँति जल वृत्रा द्वारा जो उनके पति और स्वामी हैं, रोक दिया गया। इन्द्र ने वृत्रा का वध किया और मार्ग स्वच्छ कर दिया, जिससे पानी बह गया, जो वृत्रा द्वारा रोक दिया गया था।

उपर्युक्त वर्णन ऋषियों का आंखों देखा है। वृत्रा का अर्थ मेघ है। प्रायः पहाड़ी नदियाँ, जो बहुधा सूखी रहती हैं, वर्षा होने पर ज़ोरों से उमड़कर बहने लगती हैं। दूसरी ऋचा से पहाड़ी तूफ़ानों से होनेवाला वृक्ष-कम्पन साफ़-साफ़ नज़र के सामने आ जाता है। यह दृश्य पंचनद की समभूमि पर सम्भव नहीं। यह उस समय की स्मृति है, जिस समय आर्य हिमालयोत्तर पहाड़ी प्रदेशों में रहते होंगे। एक दूसरी ऋचा जो ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल के १५वें सूक्त में है, स्पष्ट कर देती है कि आर्य लोग सिन्धु नदी के उद्गमस्थान, काश्मीर के पूर्वोत्तर-प्रदेश, मानसरोवर के निकट, पास से पंजाब में आये। यह ऋचा निम्नलिखित है-

सोदंचं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव।
अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥

अर्थात् इन्द्र ने अपनी महत्ता से सिन्धु-नदी को उत्तर की ओर बहा दिया तथा उषा के रथ को अपनी प्रबल तीव्र सेना से निर्बल कर दिया। इन्द्र यह तब करते हैं, जब वह सोम मद से मत्त हो जाते हैं। सिन्धु-नदी अपने उद्गम-स्थान मानसरोवर से काश्मीर तक उत्तर-मुँह होकर बहती है; काश्मीर के बाद दक्षिण-पश्चिम-मुखी होकर बहती है। सम्भवतः इन्द्र ने पहाड़ी दुर्गम मार्ग को काटकर, सिन्धु-नदी के संकीर्ण मार्ग को विस्तीर्ण कर उत्तर की ओर नदी की धारा स्वच्छन्द कर दी हो। इससे आर्यों का मार्ग बहुत सुगम हो गया होगा। यह मत निम्नलिखित ऋचा से और भी दृढ़ हो जाता है-

इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन् अहि मन्वपस्ततर्द प्रवक्षणा अभिनत् पर्व्वतानाम्। (ऋ.मं. १/३२/१)

अर्थात् इन्द्र के उन पुरुषार्थपूर्ण कार्यों का वर्णन करूँगा जिनको उन्होंने पहले-पहल किया। उन्होंने अहि यानी मेघ को मारा; (अपः) जल को नीचे लाये और पर्वतों को जलमार्ग बनाने के निमित्त काटा (अभिनत्)।
इसके बाद ही इसी सूक्त की आठवीं ऋचा इस प्रकार है-

नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अतियन्ति आपः।
याः चित् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् त्रासामहिः यत्सुतः शीर्बभूव॥ (१/३२/८)

अर्थात् ठीक जिस प्रकार नदी ढहे हुए कगारों पर उमड़कर बहती है, उसी प्रकार प्रसन्न जल पड़े हुए वृत्र (बादल) पर बह रहा है। जिस वृत्रा ने अपनी शक्ति से जल को जीते-जी रोक रक्खा था, वही (आज) उनके पैरों तले पड़ा हुआ है।

यह दृश्य पहाड़ी प्रदेशों के दृश्य का स्मरण दिलाता है। वर्षा होने के समय काले-काले बादलों के झुण्ड और पंक्तियाँ, बिजली की चमक, तड़क-भड़क के साथ गर्जन और अन्त में वृष्टिपात होने पर जल की अटूट धारा तथा मेघों का लोप ! ऐसे मनोरम हृदयाकर्षक दृश्य को देखकर-जिसमें मेघ पहाड़ों के सिर पर अड्डा जमाये रहते हैं और बरस जाने पर यत्र-तत्र हलके होकर विलीन हो जाते हैं-आर्यों का यह चित्र खींचना बिलकुल स्वाभाविक है। ऐसी ऋचायें प्रचुर मात्रा में मिलती हैं।

तुलनात्मक अध्ययन के लिये ईरानी शाखा का गतिक्रम दिया जाता है-

इरानी आर्योंका    वायुपुराण   पर्वतश्रेणी    महाभारत    बौद्धजातक और 
गतिक्रम    Korasea कुरु   कुरुवर्ष                ऐतरेय ब्राह्मण

कास्पियन आक्सस  उत्तरसागर    शृंगवान् 
(उक्ष, आर्यानां व्रजः) हिरण्मय    हिरण्मयवर्ष

सुग्ध (समरकन्द)    रम्यक       श्वेत

मौरू (मर्व)     Elburz इलावृत  रम्यकवर्ष   हरिवर्ष (उत्तर कुरु) उत्तर कुरु (मेरु)

बख्धी (बल्ख) Thianshan हरिवर्ष  नील 

हेरोयू (हेराट)     किम्पुरुष     इलावृतवर्ष    गन्धर्वदेश       मानसरोवर
                                 (मानसरोवर)
काबुल          भारतवर्ष      नैषध        हाटक         अन्यदेश
             (सप्तसिन्धु)
हफ़्तहिन्दु (सप्तसिन्धु)            हरिवर्ष    किम्पुरुषक्षेत्र 
                             
                          हेमकूट   श्वेतपर्वत (हिमालय)   हिमालय
                         किम्पुरुषवर्ष
                       
                          हिमवान्

                         भारतवर्ष      भारतवर्ष      भारतवर्ष
                        (सप्तसिन्धु)

अवेस्ता और ऋग्वेद में आर्यों के आदि-निवास की झलक

ऋग्वेद और ज़ेन्दा-अवेस्ता (Zenda Avesta) दोनों में उत्तरीय ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेशों की लम्बी छः महीने वाली रातों की स्मृति विद्यमान है। लोकमान्य तिलक का उत्तरीय ध्रुव के प्रदेशों को आर्यों का आदि-निवास-भूमि बतलाना तथा ज्योतिर्गणना के आधार पर ख्रीष्टाब्द से हज़ारों वर्ष पूर्व उन ध्रुव-प्रान्तों में आर्यों के रहने का सिद्धान्त ध्रुव-सा ज्ञात होता है। वहाँ से महाप्रलय (The Great Deluge) के उपरान्त Post Glacier Period में वे लोग साइबेरिया के विस्तृत भूभाग में, सम्भवतः आधुनिक यूराल पर्वतश्रेणी से पूर्व और पश्चिम दोनों ओर फैल गये होंगे। भूतत्त्व-विशारदों के कथनानुसार साइबेरिया उस समय अनुकूल बसने योग्य आबोहवा में रहा होगा, जैसा कि उस मैदान के अन्दर पाये जाने वाले पौधों और जन्तुओं के कंकाल से अनुमान किया जाता है। मैंने यूरेशिया का एक मानचित्र अपनी सुविधा के लिये तैयार किया है, जो इस लेख के साथ नहीं दिया गया है। उसमें मैंने प्राचीन और अर्वाचीन नामों की तुलना कर आर्यों की गति का चित्र खींचा है। यह चित्र काल्पनिक होने पर भी लोकमान्य के सिद्धान्त के समर्थन के साथ-साथ पुराण तथा महाकाव्यों में वर्णित भौगोलिक क्रम की पूर्ण परिपुष्टि करता है। इससे स्पष्ट विदित हो जायगा कि पुराणकारों तथा महाकाव्य के रचयिताओं को अपने आदिकालीन सनातन इतिहास और भूगोल का स्मरण था। वे अपने आदि-निवास-स्थल का पुण्य-स्मरण कर उनकी विविध प्रशंसा करते हैं। वे उन स्थानों को पवित्र समझते और वहाँ विविध सुख की कल्पना करते हैं। बौद्ध साहित्य, जिसका इन दिनों ज़ोरों के साथ अध्ययन हो रहा है, इस विषय पर प्रकाश डालता है। हिमालयोत्तर-प्रदेशों तथा पर्वतश्रेणियों के नामों में संस्कृतत्व का आभास मिल जाता है।

अर्वाचीन और प्राचीन नामों की तुलना से सम्भवनीय स्थान-निर्देश

मैं उत्तर-ध्रुव से आरम्भ कर, ऐसे शब्द-साम्य का दिग्दर्शन करा आर्यों की प्राचीन स्थिति की एक झलक देखने का प्रयत्न करूंगा। मैंने अपने कल्पित मानचित्र में अर्वाचीन प्रचलित नामों को और जहाँ-तहाँ प्राचीन पौराणिक नामों को अंकित किया है। उत्तर-महासागर (Arctic ocean) के दक्षिण कारासागर और नोवा ज़ेम्बला (Nova Zembla) द्वीप के दक्षिण कोरा का मुहाना है। वायु पुराण के अनुसार कुरु उत्तरतम प्रदेश माना गया है। ब्रह्माण्ड पुराण इसे उत्तर समुद्र के तट ही पर दक्षिण की ओर मानता है। पद्मपुराण कुरु के बदले ऐरावत को उत्तर-समुद्र के दक्षिण और शृंगवान्-पर्वतके उत्तर मानता है। यह ऐरावत, पद्मपुराण के अनुसार ऐसा स्थान है जहाँ सूर्य की गति भी नहीं है। अतएव ब्रह्माण्डपुराण का कुरु-वर्ष या उत्तर-कुरु ही पद्मपुराण में ऐरावत हो गया है और पद्मपुराण में, उत्तर-कुरु मध्य-एशिया में आकर मेरु-पर्वत के पास ही उत्तर और नील-पर्वत के पास दक्षिण हो गया है। वायुपुराण का कुरु जम्बूद्वीप का उत्तरतम प्रदेश है; पद्मपुराण में यह भारत और उत्तर ध्रुव के बीच में आ गया है। यह आर्यों के उत्तर की ओर से, महाप्रलय के बाद, एशिया में आने का द्योतक है। मैं वायुपुराण के ’कुरु’, को जो उत्तर-समुद्र के समीप यानी ध्रुव-प्रदेश में है-कारा-सागर (Karasea) और कोरा के मुहाने (Strait of Kora) के आस-पास के स्थलों में मानता हूँ। यह कारा-सागर ही पद्म-पुराण या ब्रह्माण्ड पुराण का उत्तर-समुद्र है। यह कारा-सागर के ठीक दक्षिण है। आजकल जिसे North Sea कहा जाता है, वह योरप के उत्तर है। किन्तु उस समय जब आर्य लोग उत्तर-ध्रुव के निकटस्थ प्रदेशों में रहते थे, कारा सागर ही उत्तर समुद्र का द्योतक हो सकता है। ’कारा’ और ’कोरा’ शब्दों से कुरु शब्द का निकटतम सम्बन्ध भी है।

शृंगवान्, ऐरावत, यूराल नदी या संस्कृत का ’इरालय’

शृङवान्-पर्वत का पता लगाना कुछ टेढ़ा अवश्य मालूम होता है; परन्तु इसके अर्थ पर ध्यान देने से विदित होता है कि किसी पर्वत को, जिसके शिखर (शृंग) हो, शृंगवान् कहा जा सकता है। पद्मपुराण उत्तर-समुद्र के बाद ऐरावत का होना मानता है; और शृंग इसके दक्षिण है, अतएव उत्तर-समुद्र और शृंग (Mammoth Country) के बीच ऐरावत का होना निश्चित हुआ। इस ऐरावत-वर्ष में भी सूर्य की गति नहीं है। ऐरावत शब्द ’इर्’ धातु से बना हुआ है। ’इर्’ और ’इल्’ धातु जाने के अर्थ में प्रयुक्त हैं। अतएव ’इरा’ का अर्थ पृथ्वी भी होता है। जल और सरस्वती के अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है। इरावत का अर्थ समुद्र और इसी प्रकार इराधर और इलाधर का अर्थ पहाड़ होता है। इरेश का प्रयोग हम वरुण के अर्थ में करते हैं। ऋग्वेद में वरुण की महिमा बहुत गायी गयी है। इन्द्र के समान वरुण भी धीरे-धीरे आर्यों के प्रधान देवता बन गये हैं। इरावत का अर्थ समुद्र होने से, ऐरावत (स्वार्थे अण्) का अर्थ समुद्र-तट का वासी हो सकता है। उत्तरीय ध्रुव के प्रदेशों में सूर्य की गति नहीं है। ऐरावत में भी सूर्य का प्रकाश दुर्बल माना गया है। चूँकि यह ऐरावत-शृंग के उत्तर है, अतएव यूराल-पर्वतश्रेणी के उत्तर-स्थित प्रदेशों को ऐसा मान लेने में कोई अड़चन नहीं जान पड़ती। देखकर आश्चर्य होता है कि उत्तर-ध्रुव से आरम्भ कर मध्य-एशिया के प्रदेश से लेकर फ़ारस या अफ़गानिस्थान और भारतवर्ष की अर्वली-पर्वत-श्रेणी तक ऐसे तत्सम शब्दों का ताँता लगा हुआ है। यही यूराल-पर्वतश्रेणी आर्यों का दूसरा अड्डा हो सकता है। यहीं के आस-पास के स्थान ऐरावत देश के द्योतक हैं। यूराल-पर्वत से ’यूराल’ नाम की एक नदी भी निकलती है। यह नदी कैस्पियन-सागर में गिरती है। ’इरा’ का अर्थ जल होने से इरालय का अर्थ नदी हो जाता है। आर्यों की योरपीय शाखा सम्भवतः यूराल-पर्वत-श्रेणी के आसपास के प्रदेशों से ही अलग हुई।

इलास्पद, इरास्प (द) और योरप का साम्य

इसका नाम इलास्पद और इरास्पद दोनों हो सकता है। यदि हम इसी स्थान को इलास्पद या इरास्पद मान लें, तो योरप के नामकरण में भी हमें इरास्प (द) का आभास मिल जाता है। स्वामी दयानन्द ने योरप की तुलना हरिवर्ष से की है। हरि का अर्थ पीत और बन्दर भी है। हरिनेत्र का अर्थ पीली आँखवाला भी है। यह हरिवर्ष योरप का नाम भी हो सकता है; परन्तु प्रिन्सिपल महोदय ने इस हरिवर्ष को पामीर-पर्वत-श्रेणी के उत्तर और थियानशान के दक्षिणवर्ती प्रदेशों के बीच बतलाया है। चूँकि आर्य लोग अपने प्रिय नामों को जहाँ गये, अपने साथ लेते गये, इसलिये हरिवर्ष को योरप मानने में कोई बाधा नहीं। योरपवासियों की नेत्राकृति से भी यह युक्तिसंगत मालूम होता है। पीछे से हरिवर्ष हिमालयोत्तर-प्रदेश हो गया।

इलावृत और एलबर्ज़ पर्वत का साम्य

इसके अनन्तर वायुपुराण में हिरण्मयवर्ष का होना बतलाया गया है। हिरण्मय के बाद श्वेत-पर्वत और उसके बाद रम्यक-वर्ष है। रम्यकवर्ष के बाद नीलपर्वत और तत्पश्चात् इलावृत है। हम एशिया के मानचित्र में इन पांच स्थानों का क्रमिक निर्देश करते हुए इलावृत का निर्देश Elburz (एलबर्ज़)-पर्वत से कर सकते हैं। यह एलबर्ज़ कास्पियन-सागर के उत्तर पश्चिम तक फैला हुआ है। इन पहाड़ी प्रदेशों के उत्तर काकेसस पर्वत है। काकेसस पर्वत के निकटवर्ती प्रदेश की भूमि, लोकमान्य तिलक के पूर्व आर्यों की आदि-भूमि मानी जाती थी। यदि एलबर्ज़ के आसपास (कास्पियन-सागर के पश्चिमी किनारे से लेकर दक्षिण-पूर्व तक) आर्यों के इलावृत-देश को मान लें तो काकेसस, जो नील-सागर के उत्तर-पूर्व है, नील-पर्वत का स्थान ग्रहण कर सकता है।

रम्यकवर्ष और श्वेतपर्वत

वायुपुराण नीलपर्वत के बाद रम्यकवर्ष का होना बतलाता है। सम्भवतः आर्य लोग ऐरावतवर्ष से दक्षिण की ओर यूराल-नदी के तटवर्ती प्रदेशों से आकर कास्पियन-सागर से उत्तर, काकेसस (नीलपर्वत) से एशियाई टर्की के अरब-सागर (इरा = जल) तक फैल गये हों। यह प्रदेश यूराल पर्वत की तराई होने के कारण सुन्दर है तथा पहाड़ी प्रदेश यहाँ बहुत कम है। बहुत सम्भव है, इस रम्यक-भूमि के उत्तर यूराल की पर्वतश्रेणी में कोई श्वेतपर्वत भी रहा हो। श्वेतसागर (White sea) कोरासागर के पश्चिम की ओर अब तक विद्यमान है। वायुपुराण, ऐरावत के बाद शृंगवान् और शृंगवान् के बाद हिरण्मय वर्ष का होना बतलाता है। यह हिरण्मयवर्ष सम्भवतः यूराल-पर्वतश्रेणी के आसपास ऐरावतवर्ष के दक्षिण-पश्चिम की ओर रहा होगा। अथवा हो सकता है, यह यूराल-पर्वतश्रेणी के पश्चिम से यूराल-नदी के तट तक फैला हुआ हो।

मध्यएशिया के प्रदेशों में आर्यों का रहना और वहाँ से भारतीय और ईरानी शाखाओं का अलग-अलग होना- इसमें संदेह है कि आर्य लोग रम्यकवर्ष के बाद ऐरल-सागर की ओर से ’आर्यानां व्रजः’ में आये या एलबर्ज़ (इलावर्त) के बाद कास्पियन-सागर केपूर्व की ओर ऐरल-सागर की ओर फैल गये।

ऐरल-सागर और ऐरावत का साम्य

ऐरल-सागर के ऐरावत से साम्य होने के कारण संभव है। यूराल-नदी के तटवर्ती प्रदेशों से होते हुए ऐरल की ओर कुछ लोग बढ़ गये हों और कुछ आर्य काकेसस से होते हुए फिर भी समयान्तर में कास्पियन-सागर के पूर्ववर्ती प्रदेशों की ओर आक्सस (अक्षु) नदी के तटों पर ऐरल-सागर तक फैल गये हों। चूँकि आर्यों की दोनों शाखाएँ इसी आक्सस नदी के तटवर्ती प्रदेशों से अलग हुई बतायी जाती हैं और चूँकि ईरानी आर्यों की प्रथम भूमि ’आर्यानां व्रजः’ है, इसलिये ’आर्यानां व्रजः’ का आक्सस-नदी के उत्तर-पश्चिम की ओर होना निश्चित किया गया है। चाहे कहीं भी हो, लेकिन यह प्रदेश ऐरल के दक्षिण, आक्सस से पूर्व-उत्तर और कास्पियन से पूर्व की ओर कहीं रहा होगा; क्योंकि इसके बाद ईरानियों का दूसरा प्रदेश स्रग्ध (समरकन्द) है। भारतीय शाखा ’आर्यानां व्रजः’ से ही ईरानियों से अलग हुई, ऐसा प्रतीत होता है। पूर्वी टर्की में ताजिक (Tajik) -नामक आर्य-जाति का रहना माना जा चुका है। यही पीछे टर्की के पहाड़ी प्रदेशों में जा बसी और वहाँ पर यह आज गल्च (Galch) कही जाती है। आक्सस-नदी ऐरल-सागर से निकलती है और यह निर्विवाद सा है कि दोनों शाखायें आक्सस-नदी के दोनों तटों पर कभी रहती थीं। जब हम टर्की में आर्यों के कभी रहने का पता पाते हैं और जब उनमें भारतीय आर्यों की संस्कृति का आभास मिलता है, तो यह कहना कि आर्य लोग आक्सस-नदी के उस भाग से आये, जो ऐरल-सागर से आरम्भ होकर नदी के पूर्वी तट पर फैला हुआ है, अयुक्तिक नहीं है। ईरानी लोग समरकन्द, बल्ख़ और मर्व की ओर बढ़ते गये और भारतीय आर्यशाखा दक्षिण-पूर्व प्रदेशों की ओर बढ़ती-बढ़ती समय पाकर थियानशान, तारीम और कुएनलन-पर्वतश्रेणी से सिन्धु-नदी के मुहाने तक फैल गयी होगी।

ईरानी शाखा के विलग होने पर आर्यों का गतिक्रम

वायुपुराण का भौगोलिक वर्ष-विभाग प्राय़ः पर्वतश्रेणिओं से विभक्त है। हम ऊपर दिखा चुके हैं कि किस प्रकार प्रत्येक वर्ष (Country) पर्वतों या सागरों से सीमाबद्ध है। हम यह भी देखते हैं कि एलबर्ज़-पर्वतश्रेणी से आक्सस-नदी के तट-प्रान्तों तक एक बृहत् मैदान फैला हुआ है, जिसके किसी भाग-विशेष को ही ’आर्यानां व्रजः’ कहना होगा। चूँकि इलावृतवर्ष के बाद वायुपुराण में मेरु-पर्वत का नाम आया है, इससे कहना पड़ता है कि एलबर्ज़-पर्वत से मेरु तक का भूभाग ’आर्यानां व्रजः’ का द्योतक रहा होगा। आक्सस का पश्चिमी किनारा ईरानियों और पूर्वी किनारा भारतीय आर्यों के हाथ में रहा हुआ माना जा सकता है। एलबर्ज़ और मेरु के बीच का भूभाग उस समय उपजाऊ और सुखद रहा होगा तथा आर्यों के संघर्ष का कारण भी यही बना होगा। ईरानी शाखा ने, सम्भवतः ज़बर्दस्त और अपेक्षाकृत अशिक्षित होने के कारण भारतीय शाखा को दक्षिण-पश्चिम यानी ईरान की ओर जाने से रोक दिया हो और भारतीय शाखा को पर्वतीय प्रदेशों की शरण लेने को विवश होना पड़ा हो। यह मेरु-पर्वत कौन सा पर्वत है, यह अभी तक ठीक-ठीक नहीं कहा जा सका है; परन्तु जब हम देखते हैं कि महाभारत में किम्पुरुषवर्ष के बाद हाटक, हाटक के बाद मानसरोवर, मानसरोवर के बाद समीप ही गन्धर्व और गन्धर्व के बाद हरिवर्ष यानी उत्तर-कुरु है, तो हमें कहना पड़ता है कि यह हरिवर्ष थियानशान-पर्वत के दक्षिण और पामीर के पूर्ववर्ती प्रदेश का नाम रहा होगा। इन प्रदेशों के आसपास ही तुर्किस्तान की मरुभूमि है। यह मरुभूमि उस समय किस दशामें थी, यह कहना तो मुश्किल है; परन्तु इसकी दशा उस समय आज की-सी ही होगी, यह सन्देहात्मक है। सम्भवतः यह दशा बर्फ़ से गली चट्टानों के कारण हुई हो। चीनी भाषा में ’थियान’ का अर्थ स्वर्ग और ’शान’ का अर्थ पहाड़ है। हम उत्तर-कुरु के प्रदेशों का वर्णन महाभारत में या बौद्ध साहित्य में स्वर्ग का-सा पाते हैं। हम अल्टाई-पर्वत के नाम में भी संस्कृत की छाप पाते हैं। क्या यही थियानशान उत्तर-कुरु-प्रदेशों की उत्तरी सीमा हो सकती है ? क्या आर्य लोग थियानशान और पामीर के मध्यवर्ती मार्ग से दक्षिण-पूर्व की ओर नहीं बढ़ सकते थे ? क्या गोबी की मरुभूमि उस समय अच्छी दशा में नहीं हो सकती थी ? क्या मानसरोवर के उत्तरवर्ती या पश्चिमस्थ प्रदेश की भूमि कभी आर्यों की भूमि नहीं थी ? हमारा साहित्य तो भारत का हिमालयोत्तर-प्रदेश से सम्बन्ध होना बतलाता है। इसकी स्मृतियाँ, जहाँ देखिये वहीं प्रचुर मात्रा में पड़ी हुई हैं। ज़रूरत है उनका अध्ययन करने और भारतीय इतिहास पर नवीन प्रकाश डालने की।

सोमरस और सुर-असुर का विभेद

हमें मेरु पामीर को मानना हो चाहे थियानशान को, दोनों हालतों में हरिवर्ष यानी उत्तरकुरु को मानसरोवर के उत्तर होना मानना ही पड़ेगा। महाभारत, बौद्धसाहित्य, पुराण या रामायण-सबके अनुसार यह उत्तर-कुरु--जिसके मनुष्यों का वर्णन कुरु के निवासियों से यानी भारतीय आर्यों से कुछ विचित्र है और जो भारतीय आर्यों की प्रिय भूमि है, जिसका काल्पनिक स्मरण भी आज प्रत्येक आर्य को प्रफुल्लित किये देता है, जिसके आधार पर ही स्वर्ग की सारी कपना स्थित है--भारतवर्ष के उत्तर है। हिमालय आज भी आर्यसाहित्य की सृष्टि का प्रधान उत्तेजक है। यह कल्पना नहीं--पौराणिक-दन्तकथा नहीं--तथ्य है। हमारे सुर, हमारे इन्द्र, वरुण और कुबेर, यक्ष और गन्धर्व--सभी हिमालय के उत्तर हैं। मेरु के बाद हरिवर्ष, नैषध, किम्पुरुष, हेमकूट और भारतवर्ष की भूमि आर्यों की लीलाभूमि रही है। इसमें कवित्व नहीं, कोरा साहित्य नहीं, एक अचल ऐतिहासिक सत्य है। हम इस सिद्धान्त को तब और भी दृढ़ पाते हैं, जब हम सोमरस के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं। ऋग्वेद के सभी देवता सोमरस के मतवाले हैं; आर्यों के सभी यज्ञों में सोमरस की पग-पग पर आवश्यकता है। सोम-स्तुति पर ऋग्वेद का एक सम्पूर्ण मण्डल ही समर्पित है। अवेस्ता में भी इसका नाम है Haum, परन्तु इसकी वह महिमा नहीं, जो आर्यों के ऋग्वेद में है। अवेस्ता में सोमरस का पीनेवाला इन्द्र महज़ Demon हो जाता है और यहाँ इन्द्र आर्यों के एकमात्र उद्धारक बन जाते हैं। हमारे यहाँ सुरा की एक कथा प्रचलित है। यह सुरा सोमरस के सिवा और कुछ नहीं। पहले सुर और असुर दोनों आर्य ही थे; परन्तु जिन लोगों ने सुरा नहीं ग्रहण की, वे असुर और जिन्होंने ग्रहण की, वे सुर कहलाये। रामायण का यह श्लोक इसी प्रकार का है-

सुराप्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः। अप्रतिग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरास्तथा॥

हम ऊपर दिति और अदिति का ज़िक्र कर चुके हैं। ये दैत्य असुर कहलाये और ’आर्यानां व्रजः’ से, जो कश्यप-सागर (Caspian Sea) से पूर्व-उत्तर और दक्षिण की ओर फैला हुआ है, दोनों अलग-अलग हो गये। अस्तु, हमें यह देखना है कि आर्यों को सोमरस इतना प्रिय क्यों हुआ ? सोमरस से आविष्ट हो इन्द्र दैत्यों और असुरों को परास्त करते हैं। हिमालयोत्तर-प्रदेश में, जो स्वभावतः ठण्ढा रहा होगा और है, सोमरस का पीना अस्वाभाविक नहीं। सोमरस के पत्थरों से पीसे जाने का वर्णन ऋग्वेद में बहुलता से मिलता है। सोमलता हिमालय की तराई या हिमालयोत्तर-प्रदेश-- ख़ासकर काराकोरम के आसपास अब भी पायी जाती है। यह सोम भारतीय आर्यों की अपनी सम्पत्ति है। अहुरों (असुरों) का इससे कोई सम्बन्ध नहीं। अवश्य ही सुर-दल को पहाड़ी प्रदेशों में आने के कारण कठिनाइयां झेलनी पड़ी हैं; परन्तु सोम उनके प्राणों का आधार है। यह पदार्थ, यह रस हिमालयोत्तर प्रदेश का ही स्मरण कराता है।

आर्यों के आर्यावर्त में आने का समय, अर्जुन की विजय-यात्रा तथा महेन्जोदारो और हरप्पा की खोज

यद्यपि इस लेख का विषय महेंजोदारो और हरप्पा से कुछ सम्बन्ध नहीं रखता, तथापि इन खोजों तथा इनके निर्णयों से हमें महाभारत के समय के निर्णय में बहुत सहायता मिलती है। महेंजोदारो में जिस सभ्यता का पता चला है, उसका समय ख्रीष्टाब्द से ३,२०० या ३,३०० वर्ष पूर्व निश्चित किया गया है। आज से ५,००० वर्ष पूर्व जब भारत के पश्चिमोत्तर-प्रदेश में एक ऐसी सभ्यता थी, जिसमें लोहा गलाना, ईंट के मकान बनवाना, नहर ख़ुदवाना, संगमरमर का काम करना, कला, शिल्प-ज्ञान और शीशे का प्रयोग प्रचलित था, उस समय भारत के अन्य भागों में भी ऐसी सभ्यता रही होगी जो इस सभ्यता से लाभ उठा सकती थी या इसे अपने अधिकार में रख सकती थी। इस १९२३ ई. के आविष्कार की जो सबसे बड़ी महत्ता है, वह यह है कि उस समय भारत में लिपि प्रचलित थी। इससे योरपीय पण्डितों का यह कहना कि भारतवासी ख्रीष्टाब्द से कुछ ही सौ वर्ष पहले लिखना नहीं जानते थे, बिलकुल असत्य और निराधार प्रमाणित हो जाता है। परन्तु एक बात, जो बहुत ही खटकती है, यह है कि यह सभ्यता आर्यों की नहीं, प्रत्युत अनार्यों की है। इस सिद्धान्त का आधार यह है कि यहाँ आविष्कृत पदार्थों में ऐसे चित्रफलक (Pictograms) और लिंग (Phallus) तथा पूर्ण (Complete) एवं अर्द्ध (Partial) समाधियां हैं जो आर्यों की कला से नहीं मिलतीं। ये पदार्थ मेसोपोटेमिया, मिश्र और क्रेट के तत्कालीन सम्बन्ध के द्योतक बताये जाते हैं। हिन्दू-युनिवर्सिटी के इतिहासाध्यापक श्री आर्. डी. बनर्जी, एम्.ए. इन चित्रफलकों और लिंगों को आर्यों के शिवलिंग या चित्रफलकों के अनुकरण पर बने होने में सन्देह करते हैं; क्योंकि इन लिंगों के साथ-साथ आर्य-प्रणाली के अनुसार अर्घ्यपट्ट या गौरीपट्ट नहीं है, अतएव यह बैबिलोनिया के लिंग का अनुकरण है, न कि शैवों के शिवलिंग का। इसके सिवा उस समय की अग्निपूजा की विधि आर्यों की अग्निपूजा की विधि से मिलती-जुलती नहीं है। उन्होंने आंशिक समाधि की तुलना--जिसमें शव को लोग मचान पर रख छोड़ते और अस्थि के अवशिष्ट रह जाने पर उसे किसी मिट्टी के बर्तन में रखकर गाड़ देते थे--आधुनिक छोटानागपुर के मुण्डों में प्रचलित आंशिक समाधि से की है। यहाँ पर प्राप्त खोपड़ियां भी मदरास के द्रविड़ों की शक्ल की पायी जाती हैं। महाभारत के विराट पर्व में पाण्डवों ने अपने अस्त्रों को, आंशिक समाधि के अनुकरण पर, कपड़े से छिपाकर रख छोड़ा था। यह अध्यापक बनर्जी महोदय ने भी लिखा है। इससे विदित होता है कि पाण्डव लोगों के समय में जंगली जातियों में ऐसा रिवाज रहा होगा। वैदिक साहित्य में इसका वर्णन या संकेत न मिलना कोई आश्चर्य नहीं। महाभारत का काल हिन्दू-प्रणाली के अनुसार ख्रीष्टाब्द से ३,००० वर्ष पहले समझा जाता है।

यह समय इस महेंजोदारो के समय से मिल जाता है। महाभारत के समय भी जंगली जातियों का होना वर्णित है। यह हमें महाभारत-काल को आज से ५,००० वर्ष पूर्व हटाने में कोई अड़चन नहीं डाल सकता है। सच तो यह है कि मोहेंजोदारो के अनुसार हमें अपने इतिहास का प्रोग्राम ही बदलना पड़ेगा। हम पुराणों और महाकाव्यों का अध्ययन कर इस जटिल समय के प्रश्न को हल कर सकते हैं। इसके नये प्रकाश में हम इतिहास पर नया प्रकाश डाल सकते हैं। महाभारत कब लिखा गया तथा कब-कब इसकी काया में परिवर्द्धन होता गया, यह सोचने पर भी हम महाभारत के समय पर अविश्वास नहीं कर सकते। गर्गसंहिता के ’युगपुराण’ पर विश्वास कर, जैस कि ऊपर बतला चुके हैं, महाभारत से आजतक अर्थात् ३,००० ख्री.पू. से बीसवीं शताब्दी तक के गौरवपूर्वक दृष्टिपात कर सकते हैं। ईश्वर जाने, यह सुयोग हमें कब मिलेगा; परन्तु यह देखकर संतोष होता है कि इन दिनों क्या योरपीय और क्या भारतीय विद्वान् पुराणों के अध्ययन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। अस्तु, वह दिन बहुत दूर नहीं है जब आर्यों का पूर्ण इतिहास हमारे साहित्य में मिल जाय।

लेख बहुत बढ़ गया, परन्तु उपसंहार में कुछ कह देना आवश्यक होने के कारण यही कहना अलम् है कि ऋग्वेद और अवेस्ता के अध्ययन के बाद पौराणिक तथा बौद्ध साहित्य के अध्ययन करने पर हमें हिमालयोत्तर-प्रदेशों का सच्चा ऐतिहासिक परिचय मिल सकता है। यदि हम भारतीय आर्यों के हिमालय की ओर से एक बार नहीं, समय-समय पर कई मार्गों से भारत में आने की विचार-दृष्टि से वेदों और अन्य संस्कृत-साहित्यों का अनुशीलन करें तो उसकी व्याख्या अत्यन्त सरल, सुबोध और ऐतिहासिक बन जाय। आशा है, भारतीय इतिहास के प्रेमी विद्वान् और विद्यार्थी लोकमान्य तिलक की बतायी सरिणी पर अग्रसर हो, अपने इतिहास का जीर्णोद्धार कर हमारे अन्धकार को दूर करेंगे। एक बात और, योरपीय विद्वानों ने स्वार्थ बुद्धि से प्रेरित हो जिस प्रकार हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को एक तुच्छ तथा हेय रूप देना प्रारम्भ किया था, उससे शायद छुटकारा मिलने में अभी बहुत विलम्ब है। हमारी आँखों पर अपना इतिहास देखने के लिये भी योरपीय चश्मा लगाने की आवश्यकता पड़ती है। इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या हो सकती है कि आर्यों के एकमात्र प्रामाणिक इतिहास पुराण, बौद्ध-साहित्य तथा अन्यान्य साहित्य पर हम अविश्वास करें एवं भारतीय इतिहास की जानकारी के लिये दर-दर की ख़ाक छानते फिरें। पुराणों में आर्यों का भौगोलिक ज्ञान भरा पड़ा है। इनमें वर्णित स्थानों का पता हम तभी लगा सकते हैं जब यह पूर्णतः समझ लें कि आर्यों की सभ्यता उस समय, जब यह भूगोल लिखा गया, उन देशों तक फैल गयी थी। चक्रवर्तित्व प्राप्त करने के लिये भारतीय राजाओं का देश-देशान्तर जाकर राजाओं को पराजित करना एक परम्परा की बात थी। अर्जुन का दिग्विजय के लिये हिमालयोत्तर-प्रदेशों में जाना महाभारतकार की कपोल-कल्पना नहीं, एक अक्षुण्ण सत्य है। सच तो यह है कि भारतीय आर्य--चाहे वे भारत के आदिम-निवासी रहे हों और अन्य आर्य यहीं से अन्यत्र संसार में फैले हों, जैसा कि कई विद्वानों की धारणा है, चाहे वे तिलक के कथनानुसार उत्तरीय ध्रुव से आते-आते अन्त में भारत पहुँचे हों--भूगोल की पूर्ण जानकारी रखते थे। उस भूगोल और इतिहास पर अविश्वास करना प्राचीन आर्य ऋषियों के प्रति महा अपराध करना है। अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आर्यों की आदि-भूमि कौन-सी है। प्रत्येक भारतीय की यह नैसर्गिक धारणा है कि भारत ही आर्यों की सृष्टि-सनातन क्रीड़ा-स्थली है। जो कुछ सत्य साबित हो, अभी तो हमें योरपीय विद्वानों के मायाजाल के फन्दे से निकलकर स्वतन्त्र रूप से अपने प्राचीन इतिहास का पता लगाना है। हमारे पढ़ने के लिये रक्खा गया आज का इतिहास तो प्रहसन या उपन्यास ही कहा जा सकता है। आर्यावर्त से लेकर हरिवर्ष तक का इतिहास हमारे प्राचीन आरण्यक या पौराणिक साहित्य ही बता सकते हैं। ईश्वर करे, हम इसके लिये कटिबद्ध हो अपने साहित्य के अवगाहन में लग जायँ। क्या प्रत्येक आर्य-सन्तान को इस सभ्यता की आदि-जननी, कुतूहल-मयी, विशुद्ध आर्य-गाथा के जानने की लालसा नहीं होती ?

अर्जुन की विजय-यात्रा को सत्य मानने तथा पुराण में दिये हुए भौगोलिक नामों की आधुनिक नामों से तुलना करने पर यह कहना पड़ता है कि महाभारत के समय में अर्थात् आज से ५,००० वर्ष पूर्व भारतीय आर्यों को हरिवर्ष तक अर्थात् थियानशान (Celestial Mountain) पर्वत के आसन्नवर्त्ती हिमालयोत्तर-प्रदेशों तक का पूर्ण ज्ञान था। इसी हरिवर्ष को उस समय आर्य लोग उत्तर-कुरु कहते थे तथा आर्यावर्त के ’कुरु’ को उसी उत्तर-कुरु की स्मृति-रक्षा के लिय बसाया। मध्य-एशिया के ’आर्यानां व्रजः’ का अर्थ आर्यावर्त से मिलता है। कोरासागर से (उत्तर-सागर) जो Arctic Circle में है आरंभ कर आर्य लोग सीधे उत्तर की ओर पुराण निर्दिष्ट मार्ग से आये, इसमें सन्देह नहीं है। यूराल-नदी और ऐरल-सागर से ’इर्’ धातु का निर्विवाद और घनिष्ट सम्बन्ध है। ’इर्’ से ही ऐरावत बना है। इसका सम्यक् विवेचन एक-एक कर पहले किया जा चुका है। ऐरल-सागर के पश्चिम की ओर एलबर्ज़ (इलावृत) है। इरास्य, इलास्पद या इरास्पद की मैंने योरप से तुलना की है। ऐरल-सागर से (उक्ष) नदी निकलती है। इसी नदी के दोनों तरफ़ आर्य लोग कुछ काल तक रहे और यहीं से (इलावृत और उक्ष के मध्यवर्ती देश से) आर्य और ईरानी अलग हुए। ईरानियों का मार्ग तभी से बदल गया और भारतीय आर्यों का थियानशान, पामीर, मानसरोवर, तारीम (भद्राश्व) आदि से होकर काश्मीर या हिन्दुकुश के मार्ग से आना हुआ। सिन्ध में आ जाने पर ईरानी शाखा से सीमाप्रान्त पर भेंट हुई; क्योंकि वे भी अब तक काबुल पहुँच गये थे। भारतीय आर्यों का उत्तर-ध्रुव से लेकर आर्यावर्त तक का सीधा वर्णन यही बतलाता है। मानसरोवर और हिमालय ही उनका एकमात्र आदर्श है। काबुल के मार्ग से वे अभी नहीं आये, बल्कि भारत में पदार्पण के बाद वे काबुल की ओर भी फैले। किस समय वे भारत में आये, इसका निर्णय करना नितान्त दुष्कर है। कम-से-कम ५,००० वर्ष पूर्व तो महाभारत का समय है, जिस समय आर्य बहुत पुराने पड़ गये थे। ऋग्वेद की ऋचायें सिन्धु और सरस्वती के किनारे भी रची गयीं। लोकमान्य के सिद्धान्त की पुष्टि पौराणिक भूगोल से पूर्णतः होती है। यह धारणा कि आर्य आदि से भारत में रहे--सत्य या असत्य है यह अभी नहीं कहा जा सकता। परन्तु इतना तो निश्चित है कि भारतीय ऋषियों का जो समय-निरूपण अब-तक माना जा रहा है, वह सत्य सिद्ध होगा। और, ऐसा होने पर महाभारत से हज़ारों वर्ष पूर्व आर्यावर्त में आर्यों का बसना सिद्ध होगा। कम-से-कम इस समय यह सिद्ध करने का पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलता कि भारत से ही आर्य लोग अन्यत्र फैले। देवताओं के एक दिन-रात (जो मनुष्यों के एक वर्ष के तुल्य है) के प्रमाण से उत्तर-ध्रुव में उनका रहना स्पष्ट है। अतएव यदि आर्यों का आधिपत्य उत्तर-ध्रुव से आर्यावर्त तक यानी प्राचीन आर्यावर्त से अर्वाचीन आर्यावर्त तक माना जाय, तो कोई दुःख की बात नहीं, प्रत्युत हर्ष की बात है। फिर यदि आर्य ही पहले-पहल भारतवर्ष में आये तब तो उनका आधिपत्य स्वाभाविक और न्याय-सिद्ध है।