मालदेव राठौड़

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साँचा:Multiple issues राव मालदेव राठौड़ (1511-1562 ई॰) जोधपुर के एक राजा थे। वो जोधपुर के शासक गांगा के पुत्र थे। इनका जन्म वि॰सं॰ १५६८ (५ सितंबर १५११) को हुआ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् वि॰सं॰ १५८८(१५३१ ई.) में सोजत में मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। उस समय इनका शासन केवल सोजत और जोधपुर के परगनों पर ही था। जैतारण, पोकरण, फलौदी, बाड़मेर, कोटड़ा, खेड़, महेवा, सिवाणा, मेड़ता आदि के सरदार आवश्कतानुसार जोधपुर नरेश को केवल सैनिक सहायता दिया करते थे। परन्तु अन्य सब प्रकार से वे अपने-अपने अधिकृत प्रदेशों के स्वतन्त्र शासक थे।

मारवाड़ के इतिहास में राव मालदेव का राज्यकाल मारवाड़ का "शौर्य युग" कहलाता है। राव मालदेव अपने युग का महान् योद्धा, महान् विजेता और विशाल साम्राज्य का स्वामी था। उसने अपने बाहुबल से एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया था। मालदेव ने सिवाणा जैतमालोत राठौड़ों से, चौहटन, पारकर और खाबड़ परमारों से, रायपुर और भाद्राजूण सीधलों से, जालौर बिहारी पठानों से, मालानी महेचों से, मेड़ता वीरमदेव से, नागौर, सांभर, डीडवाना मुसलमानों से, अजमेर साँचोर चौहाणों से छीन कर जोधपुर(मारवाड़)राज्य में मिलाया। इस प्रकार राव मालदेव ने वि॰सं॰ 1600 तक अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार कर लिया। उत्तर में बीकानेर व हिसार, पूर्व में बयाना व धौलपुर तक एवं दक्षिण-पश्चिम में राघनपुर व खाबड़ तक उसकी राज्य सीमा पहुँच गई थी। पश्चिम में भाटियों के प्रदेश (जैसलमेर) को उसकी सीमाएँ छू रही थी। इतना विशाल साम्राज्य न तो राव मालदेव से पूर्व और न ही उसके बाद ही किसी राजपूत शासक ने स्थापित किया।

जैसलमेर के राव लूणकरण की पुत्री उमादे का विवाह 1536 ई. में जोधपुर के राव मालदेव के साथ हुआ, विवाह के उपरांत राव मालदेव व उमादे में अनबन हो जाने के कारण राजस्थान के इतिहास में रानी उमादे को रूठी रानी के नाम से जाना जाता है, रानी ने अपना सम्पूर्ण समय तारागढ़ दुर्ग में व्यतीत कर दिया था।

राव मालदेव वीर थे लेकिन वे जिद्दी भी थे। ज्यादातर क्षेत्र इन्होंने अपने ही सामन्तों से छीना था। वि॰सं॰ 1591 (ई.स. 1535) में मेड़ता पर आक्रमण कर मेड़ता राव वीरमदेव से छीन लिया। उस समय अजमेर पर राव वीरमदेव का अधिकार था, वहाँ भी राव मालदेव ने अधिकार कर लिया। वीरमदेव इधर-उधर भटकने के बाद दिल्ली शेरशाह सूरी के पास चला गया।

वि॰सं॰ 1568 (ई.स. 1542) में राव मालदेव ने बीकानेर पर हमला किया। बीकानेर राव जैतसी साहेबा(पाहोबा) के युद्ध में हार गए और वीरगति को प्राप्त हो गये । बीकानेर पर मालदेव का अधिकार हो गया। बीकानेर का प्रबंधन सेनापति कूंम्पा को सोंप दिया। राव जैतसी का पुत्र कल्याणमल और भीम भी दिल्ली शेरशाह के पास चले गए। राव वीरमदेव और भीम दोनों मिलकर शेरशाह को मालदेव के विरुद्ध कार्रवाई करने की याचना की।

चौसा के युद्ध में हुमायूँ, शेरशाह से परास्त हो गया था, तब वह मारवाड़ में भी कुछ समय रहा था। वीरमदेव और राव कल्याणमल अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने की आशा से शेरशाह से सहायता प्राप्त करने का अनुरोध करने लगे। इस प्रकार अपने स्वजातीय बन्धुओं के राज्य छीन कर राव मालदेव ने अपने पतन के बीज बोये। वीरम व कल्याणमल के उकसाने पर शेरशाह सूरी अपनी ८०,००० सैनिकों की एक विशाल सेना के साथ मालदेव पर आक्रमण करने चला(1543ई.)। मालदेव महान् विजेता था परन्तु उसमें कूटनीतिक छल-बल और ऐतिहासिक दूर दृष्टि का अभाव था। शेरशाह में कूटनीतिक छल-बल और सामरिक कौशल अधिक था।

दोनों सेनाओं ने सुमेल-गिरी के मैदान (पाली) में आमने-सामने पड़ाव डाला। राव मालदेव भी अपनी विशाल सेना के साथ था। राजपूतों के शौर्य की गाथाओं से और अपने सम्मुख मालदेव का विशाल सैन्य समूह देखकर शेरशाह ने भयभीत होकर लौटने का निश्चय किया। रोजाना दोनों सेनाओं में छुट-पुट लड़ाई होती, जिसमें शत्रुओं का नुकसान अधिक होता।

इसी समय शेरशाह सूरी ने छल कपट से नकली जा़ली पत्र मालदेव के शिविर के पास रखवा दिए। उनमें लिखा था कि सरदार जैंता व कूंम्पा राव मालदेव को बन्दी बनाकर शेरशाह को सौंपे देंगे। ये जाली पत्र चालाकी से राव मालदेव के पास पहुँचा दिए थे। इससे राव मालदेव को अपने ही सरदारों पर सन्देह हो गया। यद्यपि सरदारों ने हर तरह से अपने स्वामी की शंका का समाधान कूरने की चेष्टा की, तथापि उनका सन्देह निवृत्त न हो सका और वह रात्रि में ही अपने शिविर से प्रमुख सेना लेकरवापस लौट गया। मारवाड़ की सेना बिखर गई। ऐसी स्थिति में मगरे के नरा चौहान अपने नेतृत्व में 3000 राजपूत सैनिको को लेकर युद्ध के लिए आगे आये। अपनी स्वामीभक्ति पर लगे कलंक को मिटाने के लिए जैता, कूम्पा आदि सरदारों ने पीछे हटने से इन्कार कर दिया और रात्रि में अपने 8000 सवारों के साथ समर के लिए प्रयाण किया। सुबह जल्दी ही शेरशाह की सेना पर अचानक धावा बोल दिया। जैता व कूपां के नेतृत्व में 8000 राजपूत सैनिक अपने देश और मान की रक्षा के लिए सम्मुख रण में जूझकर कर मर मिटे। इस युद्ध में राठौड़ जैता, कूम्पा पंचायण करमसोत, सोनगरा अखैराज, नरा चौहान आदि मारवाड़ के प्रमुख वीर इतनी वीरता से लड़ें की शेरशाह सूरी को बहुत मुश्किल से ही विजय प्राप्त हुई थी। तब शेरशाह ने कहा था कि “खुदा का शुक्र है कि किसी तरह फतेह हासिल हो गई, वरना मैंने एक मुट्टी भर बाजरे के लिए हिन्दुस्तान की बादशाहत ही खो दी होती।" यह रक्तरंजित युद्ध वि॰सं॰1600 पोष सुद 11 (ई.स. 1544 जनवरी 5) को समाप्त हुआ।

शेरशाह का जोधपुर पर शासन हो गया। राव मालदेव पीपलोद (सिवाणा) के पहाड़ों में चला गया। शेरशाह सूरी की मृत्यु हो जाने के कारण राव मालदेव ने वि॰सं॰ 1603 (ई.स. 1546) में जोधपुर पर दुबारा अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे पुनः मारवाड़ के क्षेत्रों को दुबारा जीत लिया गया। राव जयमल से दुबारा मेडता छीन लिया था। ७ दिसंबर 1562 को राव मालदेव का स्वर्गवास हुआ। इन्होंने अपने राज्यकाल में कुल 52 युद्ध किए। एक समय इनका छोटे बड़े 58 परगनों पर अधिकार रहा। फारसी इतिहास लेखकों ने राव मालदेव को “हिन्दुस्तान का हशमत वाला राजा" कहा है।

तबकाते अकबरी का लेखक निजामुद्दीन लिखता है कि “मालदेव जो जोधपुर व नागौर का मालिक था, हिन्दुस्तान के राजाओं में फौज व हशमत (ठाठ) में सबसे बढ़कर था। उसके झंड़े के नीचे ५०,००० राजपूत थे।"

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

साँचा:जीवनचरित-आधार